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________________ ४२६ तीर्थंकर चरित्र भाग ३ - . - . - . - . - 4 और शरीर भिन्न है ?" - "राजन् ! तुम्हारा सोचना अनुचित है । तुम्हें समझना चाहिये कि पापी जीव समाधीन नहीं, पराधीन होता है-एक कारागृह में बन्दी मनुष्य के समान । वह यथेच्छ आने-जाने में स्वतन्त्र नहीं होता : विचार करो कि--"तुम्हार। अत्यन्त प्रिय रान। सूर्यकान्ता सजधज कर देव गना जैसी बनी हुई है, कोई सुन्दर स्वस्थ एवं सुसज्ज युवक उसके साथ दुकर्म करने का प्रयत्न करे और तुम देख लो, तो तुम उस युवक के साथ कैसा व्यवहार करोगे?''--महर्षि ने सचोट उदाहरण उपस्थित कर प्रतिप्रश्न किया । __ --"भगवन् ! मैं उसे मार, पीटूं. हाथ आदि अंग काट दूं, यावत् प्राणदण्ड दे कर मार डालूं--प्रदेशी ने उत्तर दिया। --"यदि वह व्यक्ति कहे कि--"मुझे कुछ समय के लिये छोड़ दीजिये, में अपने घर जाऊँ और अपने परिवार से कहूँ कि व्यभिचार का पाप कभी मत करना । इसका फल महान् दुःखदायी होता है । मैं परिवार को समझा कर शीघ्र ही लौट आऊँगा," तो तुम उस अपराधी को घर जाने के लिए छोड़ दोगे ?" --" नहीं भगवन् ! मैं उसे कदापि नहीं छोडूंगा । वह महान् अपराधी है "-- प्रदेशी ने कहा। -“इसी प्रकार हे राजन् ! तुम्हारा दादा महान् पापकर्मों का उपार्जन कर नरक में घोर दुःख भोग रहा है और इच्छा होते हुए भी वह क्षणमात्र के लिए भो वहाँ से छूट नहीं सकता, तो यहाँ आवे ही कैसे और तुम्हें सन्देश भी कैसे दे सकता है ?" नरक में गया हुआ जीव बहुत चाहता है कि मैं मनुष्य लोक में जाऊँ, किन्तु इन चार कारणों से नहीं आ सकता--१ नरक में भोगी जाने वाली भारी वेदना से वह निकल ही नहीं सकता २ परमाधामी देव के आक्रमण उसे निकलने नहीं देते, ३ नरकगति के योग्य कर्म का उदय होने के कारण उसे वहीं रह कर कर्म भोगना होते हैं और ४ नरकायु भुक्तमान होने के कारण आयुपर्यंत वह निकल ही नहीं सकता । इन कारणों से नारक यहाँ नहीं आ सकते । अतएव यह सत्य समझो कि जीव और शरीर भिन्न है।" (३) प्रश्न--"भगवन् ! आपने मेरे पितामह के नरक से लौट कर नहीं आने का जो कारण बताया, वह दृष्टांत है । सम्भव है वे आपके बताये कारणों से नहीं आ सकते हैं । परन्तु मेरी दादी तो अत्यन्त धार्मिक थी। श्रमणोपासिका थी । उसका जीवन धर्ममय था । आपकी मान्यता से वह अवश्य देवलोक में उत्पन्न हुई होगी और स्वतन्त्र होगी । यदि वह भी यहाँ आ कर मुझे धर्म का महत्व बताती और पाप से रोकती, तो मैं अवश्य मान www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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