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________________ ४२१ ••••••••••••••၆၆၆၆၆၆၉၆၉၀•••••••••••••••••••••••• प्रदेशी और वे श कुमार श्रमण '+ प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण (प्रदेशी नरेश यद्यपि भ. पाश्र्वनाथजी के सन्तानीय महात्मा केशीकुमार श्रमण का देशविरत शिष्य था, परन्तु भगवान महावीर स्वामी का समकालीन भी था ही, भले ही छद्मस्थकाल का हो और वह भगवान के सम्पर्क में नहीं आया हो । देव होने के पश्चात् वह भगवान् को वन्दना करने आया था। इसका चरित्र भी उल्लेखनीय है । अतएव गयपसेणी सूत्र से यहाँ दिया जा रहा है।) अर्ध के कयदेश श्वेताम्बका नगरी का राजा प्रदेशी नास्तिक था। वह अधर्मी, पापी और पाप में ही लगा रहता था उसके हाथ रक्त में सने रहते थे । वह स्वग-नरक, परलोक, पुण्य-पापादि का फल नहीं मानता था। उसके शासन में अपराधियों को अ दण्ड दिया जाता था। वह विनयादि गुण से रहत था। प्रजा का पालन नहीं, पीड़न करता था। परन्तु उसके मन में जीव और शरीर का भिन्नाभिन्नत्व-एकत्व-पथकत्व जानने की जिज्ञासा थी। वह जीव को जानने के लिये खोज करता रहता था। और खोज का मार्ग था-मनुष्यों को विविध रीति से मार कर उनके शरीर में जीव को ढूंढना । प्रदेशी राजा की रानी का नाम 'सूर्यकान्ता' था । राजा को रानी अत्यंत प्रिय थी। वह उसके साथ भोग में अनुरक्त रहता था। राजा का ज्येष्ठ पुत्र सूर्यकान्तकुमार युवराज था । युवराज राज्यकार्य संभालता रहता था। प्रदेशी राजा के लिये ज्येष्ठ-भ्राता के समान विशष वय वाला 'चित्त' नामक सारथि था । वह राज्यधुरा का चिन्तक, वाहक, अत्यंत विश्वस्त बुद्धिमान और प्रामाणिक प्रधानमन्त्री था। उस समय कूणाल देश में श्रिावस्ति' नामक नगरी थी। वहाँ प्रदेशी राजा का अन्ते. वासी = आज्ञा पालक, 'जितशत्रु' नाम का राजा राज्य करता था। एक बार प्रदेशी राजा ने चित्त सारथि को बहुमूल्य भेट ले कर जितशत्रु राजा के पास भेजा और उसके राज्य की नीति एवं व्यवहार का निरीक्षण कर ज्ञात करने का निर्देश दिया। चित्त एक रथ में आरूढ़ हो, कुछ सेवकों के साथ चल कर श्रावस्ति आया और जितशत्रु राजा को विनय-पूर्वक नमस्कार किया, कुशलक्षेम पृच्छा के पश्चात् प्रदेशी की ओर से मूल्यवान् भेंट समर्पित की। जितशत्रु राजा ने चित्त सारथि का आदर-सत्कार किया और राज-मार्ग पर रहे हुए भव्य प्रासाद में ठहराया । उसका आतिथ्य भव्य रूप से किया गया। उसके खानपान ही नहीं, गान-वादन, नृत्य-नाटक आदि और उच्चकोटि के भोग साधन प्रस्तुत कर मनोरञ्जन किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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