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वरधनु का श्राद्ध और पुनर्मिलन
ब्रह्मदत्त के मन में वरधनु के विरह का डंक रह-रह कर खटकता रहता था । उसे उसके जीवित होने की आशा नहीं रही थी । इसलिये वह उसका श्राद्ध ( उत्तर - क्रिया ) करने लगा । उसने ब्राह्मणों को एक विशाल भोज दिया । ब्राह्मण लोग भोजन कर रहे थे कि एक ब्राह्मण ब्रह्मदत्त के सम्मुख आ कर बोला- 'यदि मुझे प्रेमपूर्वक भोजन कराओगे, तो वह तुम्हारे मित्र वरधनु को ही पहुँचेगा।" ब्रह्मदत्त ने उसकी बोली और आकृति देखी और चौंका । वह तत्काल उसे बाहों में भर कर आलिंगन करता हुआ बोला -- " मित्र ! कहाँ चले गये थे !" तुम
'तुमने तो मेरा श्राद्ध ही कर दिया न ? यह तो सोचते कि मैं तुम्हें विपत्ति में छोड़ कर, मर ही कैसे सकता हूँ ? मेरे मरने का कोई चिन्ह भी देखा था क्या तुमने ?” --" जब शोध करने पर भी तुम नहीं मिले, तो फिर मेरे लिये सोचने का रहा ही क्या ? अच्छा अब, यह वेश बदलो और मुझे लोप होने का कारण बताओ ।"
--" मित्र ! तुम तो रथ में सो गये थे। उसके बाद कुछ डाकू लोगों ने अचानक आ कर मुझ पर हमला कर दिया। मैने उन्हें मार भगाया । किन्तु वृक्ष की ओट में रह कर एक डाकू ने मुझ पर बाण छोड़ा, जिससे घायल हो कर में गिर पड़ा और लताओं के झूरमुट में ढक गया । जब डाकुओं ने मुझे नहीं देखा, तो वे लौट गये। इसके बाद में वृक्षों और लताओं में छुपता हुआ एक गाँव में पहुँचा। उस गाँव के नायक से तुम्हारे समाचार पाकर यहाँ आया, तो ज्ञात हुआ कि यहाँ मेरा श्राद्ध हो रहा है ।"
दोनों मित्र प्रेमपूर्वक मिले और वहीं रह कर समय व्यतीत करने लगे ।
गजराज पर नियन्त्रण और राजकुमारी से लग्न
वसंतोत्सव के दिन थे । सर्वत्र रंग-राग और उत्साह व्याप्त था । इसी समय राज्य की हस्तिशाला में से एक गजराज मदोन्मत्त हो गया और बन्धन तुड़ा कर भागा। रंगराग का वातावरण हाहाकार में पलट गया । गजराज की चपेट में एक युवती आ गई । हाथी ने उसे अपनी सूंड में पकड़ ली। युवती चिल्ला रही थी । ब्रह्मदत्त ने देखा । उसने हाथी को ललकारा और उसकी और झपटा । ब्रह्मदत्त को गर्जना करते हुए, अपनी ओर
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