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________________ ३८६ कककककककककक कककककककककककककककककककककककककककककककककककका कपिल के वली चरित्र जिससे हम गौरवान्वित हो रहे थे, वह सब उनके दिवंगत होते ही हम से छिन गई और दूसरे को प्राप्त हो गई । यदि तू योग्य होता, तो यह दिन नहीं देखना पड़ता। इसी का दुःख होता है।" ___ कपिल ने कहा- “माँ ! शोक मत करो। मैं पढ़-लिख कर विद्वान बनना चाहता हूँ। कहो, किसके पास पढ़ने जाऊँ ?" --"पुत्र ! यहाँ के विद्वान तो अपनी प्रतिष्ठा देख कर ईर्षालु हो गए हैं । इसलिए वे तुम्हारे लिए अनुपयोगी होंगे। तुम श्रावस्ति नगरी जाओ। वहाँ पंडित इन्द्रदत्त तुम्हारे पिताजी का मित्र रहता है । वे महाविद्वान हैं । तुझे पुत्रवत् समझ कर पढ़ाएँगे।" कपिल माता की आज्ञा ले कर श्रावस्ति गया। उसने इन्द्रदत्त शर्मा को प्रणाम कर के अपना परिचय दिया और बोला--"मैं आपकी शरण में हूँ। मुझे विद्यादान दीजिये।" --"पुत्र ! तू तो मेरे भाई का पुत्र है । तुने अच्छा किया कि विद्या पढ़ने का संकल्प कर के यहाँ आया। परन्तु मैं स्वयं निर्धन हूँ, दरिद्र हूँ। तेरा आतिथ्य करने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है। मैं तुझे अवश्य पढ़ाऊँगा, परन्तु तू भोजन कहाँ करेगा और बिना भोजन के पढ़ेगा भी कसे ?" ____पिताजी ! भोजन की चिन्ता आप नहीं करें। मैं भिक्षा कर के अपना जीवन चला लूंगा । ब्राह्मणपुत्र को भिक्षा मिलना सहज है । बस "भिक्षां देहि" कहा कि भिक्षा मिली । ब्राह्मण हाथी पर चढ़ कर वैभवशाली भी हो सकता है और भिक्षोपजीवी भी । भिक्षोपजीवी ब्राह्मण राजा के समान स्वतन्त्र होता है । इन्द्रदत्त कपिल को साथ ले कर शालिभद्र नाम के सेठ के यहाँ गया और उच्च स्वर से "ॐ भूर्भुवः स्वः" आदि गायत्री मन्त्र बोल कर सेठ को आकर्षित किया। सेठ ने उन्हें अपने समाप बुला कर प्रयोजन पूछा। "भाग्यवान् सेठ ! इस विप्र बटुक को आपकी भोजन शाला में नित्य भोजन दीजिये । यह कौशाम्बी से विद्याभ्यास के लिये मेरे पास आया है । मैं इसे अभ्यास कराऊँगा । आप भोजन दीजिय"--इन्द्रदत्त ने मांग की। सेठ ने कपिल को भोजन देना स्वीकार कर लिया। कपिल प्रतिदिन सेठ की भोजनशाला में भोजन करता और इन्द्रदत्त से विद्या पढ़ता । भोजन शाला में एक युवती दासी भोजन परोसा करती थी। कपिल भी युवावस्था प्राप्त कर चुका था। एक-दूसरे का दृष्टि मिलाप हुआ, वचन-व्यापार होने लगा और उपहास्य आदि मार्ग से वेदमोहनीय अपना उदय सफल करने लगा। उनका पाप-व्यापार प्रच्छन्न चलने लगा । कालान्तर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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