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क्षमापना कर जीता हुआ राज्य भी लौटा दिया
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जिस स्थान पर लगा, वह स्थान 'दशपुर' कहलाया । बन्दी चण्डप्रद्योत की भोजनादि व्यवस्था महाराजा ने अपने समान ही करवाई।
क्षमापना कर जीता हुआ राज्य भी लौटा दिया
पर्वाधिराज पर्युषण के दिन थे। महाराज उदयन श्रमणोपासक थे। उन्होने सम्वत्सरी महापर्व का पौषध युक्त उपवास किया। उन्हें भोजन नहीं करना था। इसलिये रसोइये ने बन्दी चण्डप्रद्योत से पूछा-"आपके भोजन के लिये क्या बनाया जाय ?" रसोइये के प्रश्न पर प्रद्योत चौंका । उसने रसोइये से पूछा ।
"पहले तो कभी तुमने मुझसे पूछा ही नहीं, आज क्यों पूछते हो ?" चण्डप्रद्योत के मन में सन्देह हुआ-कदाचित् विष प्रयोग कर मुझे मारने की योजना हो ।
-“आज महाराज और अंतःपुर आदि ने महापर्व का पोषधोपवास किया है । आप ही के लिये भोजन बनाना है । इसलिए आपको पूछना पड़ा है।"
तब तो आज मैं भी उपवास करूँगा । मेरे माता-पिता भी श्रावक थे और उपवास करते थे।"
रसोइये ने चण्डप्रद्योत की बात महाराजा को सुनाई। उन्होंने कहा--
"प्रद्योत धर्म रसिक नहीं, धूर्त है । परन्तु आज वह भी पर्व को आराधना कर रहा है, इसलिये मेरा धर्मबन्धु है । उसे मुक्त कर दो।"
चण्डप्रद्योत मुक्त कर दिया गया। उदयन नरेश ने उससे क्षमा याचना की और उसके ललाट पर बांधने को स्वर्णपट्ट दिया, जिससे अंकित किया हुआ · दासीपति" नाम छुप जाय और उसका राज्य भी लटा दिया । चण्डप्रद्योत को अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त हो गया। वह लौट गया ।
वर्षाकाल पूरा होने पर महाराजा उदयन अपने सामन्तों और सेना के साथ स्वदेश चले गये । किन्तु उस पड़ाव के समय जितने व्यापारी और अन्य लोग वहाँ बस गये थे, वे वहीं रह गए और वह बस्ती ‘दशपुर' (आज का मन्दसौर ?) कहलाई ।
* ग्रन्थ कार लिखते हैं कि इस दशपुर नगर को उदयन नरेश ने जिन प्रतिमा के खर्च के लिये दे दिया । और चण्डप्रद्योत ने विदिशा में एक नगर बसाया और उसने विद्युन्माली देव-निर्मित प्रतिमा के लिए बारह हजार गाँव प्रदान किये। यह घटना श्रमण भगवान महावीर प्रभ की विद्यमानता की है। परन्तु सर्वमान्य आगमों में मन्दिर-प्रतिमा और ग्राम-दान विषयक एक शब्द भी नहीं है।
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