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वत्सराज उदयन बन्दी बना
कककककक कककककककक
कककककक
राजकुमारी उदयन के शब्द सुनते ही क्रोधित हो गई और बोली - " अरे कोढ़िये ! तु मुझे झूठमूठ ही कानी कहता है ? तू अन्धा भी है क्या ? मेरी दोनों आंखें तुझं दिखाई नहीं देती ?"
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राजकुमारी की बात सुन कर उदयन ने सोचा- ' हे में भ्रमित किया गया है। हम दोनों में एक दूसरे के विषय में असत्याचरण कर भेद रखा गया है। उसने पर्दा हटाया। दोनों एक दूसरे को देख कर मुग्ध हो गए। वासवदत्ता ने कहा-
" हे कामदेव के अवतार ! मैं पिता की असत्य बात पर विश्वास कर के आपके सुदर्शन मुख के दर्शन से आज तक वचित रही । अब आपकी प्रदान की हुई कला आप ही के लिए आनन्दकारी हो । यह मेरा हार्दिक इच्छा है ।"
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वत्सराज उदयन ने कहा - " चन्द्रमुखी ! तुम्हारे पिता ने हमें एक-दूसरे से उदासीन रखने के लिये ही मुझे तुम्हें कानी और तुम्हें मुझे कोढ़ी बताया । अभी हम यथायोग्य वतंगे, फिर सुअवसर प्राप्त होते ही मैं तुम्हें ले भागूँगा ।"
अब प्रत्यक्ष में तो दोनों का सम्बन्ध शिक्षक-शिक्षिका का रहा, परन्तु अंतरंग में वे पति पत्नी हो गये थे । इस गुप्त बात को वासवदत्ता को एकमात्र अत्यन्त विश्वस्त धात्री परिचारिका कंचनमाला ही जानती थी । इन दोनों की सेवा में कंचनमाला रहती थी । इसलिए इन दोनों के सम्बन्ध की जानकारी अन्य किसी दास-दासी को नहीं हुई । वे सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे ।
कालान्तर में अनलगिरि हस्ति रत्न मदोन्मत्त हो कर भाग निकला और नगर में आतंक फैलाने लगा । हस्तिपालों का अथक प्रयत्न भी उसे हस्तिशाला में नहीं ला सका । यह गजराज राज्य में रत्नरूप में उत्तम माना जाता था और राजा का प्रिय था । इसे मारने का तो विचार ही नहीं किया जा सकता था। किस प्रकार इसे वश में किया जाय ? राजा से अभयकुमार ने पूछा। उन्होंने कहा -" उदयन नरेश से हाथी के समीप गायन करवाइये ।” राजा ने उदयन से कहा । वे हाथी के निकट आये । वासवदत्ता भी आई । गायन सुन कर हाथी स्तब्ध हो गया और सरलता से बन्धन में आ गया। अभयकुमार के इस मार्गदर्शन से प्रसन्न हो कर राजा ने दूसरी बार इच्छित माँगने का वचन दिया । अभयकुमार ने इस वरदान को भी धरोहर रखने का निवेदन किया ।
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