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रोहिणिया चोर
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अभय कुमार ने नगर-रक्षक से कहा--"तुम सेना को सन्नद्ध कर के गुप्त रूप से यह जानने का प्रयत्न कगे कि--रोहिणिया कब नगर में प्रवेश करता है । जब वह नगर में आवे तब तुम सैनिकों से सारे नगर को घर लो और भीतर भी खोज करते रहो। इस प्रकार वह पकड़ में आ सकेगा।"
भगवान् राजगृह पधारे और गुणशील उद्यान में बिराजे। धर्मोपदेश चल रहा था। रोहिण नगर में जा रहा था। वह मार्ग भगवान् के निकट हो कर ही जाता था। बच कर निकलने की कोई विधा नहीं थी। उसने अपने दनों में अंगलियाँ डाल दा और शीघ्रतापूर्वक चलने लगा। अचानक उसके पाँव में एक काँटा चुभ गया, जिससे उसका चलना अशक्य हो गया। विवश हो कर उसे नीचे बैठ कर काँटा निकालना पड़ा । वह भगवान् को वाणी सुनना नहीं चाहता था, परन्तु काँटा तो निकालना ही था और काँटा निकालने के लिए कान से अगुलियां हटाना भी आवश्यक था। उसने अगुलियाँ हटाई । काँटा निकाले इतने समय में ही उसके कान में भगवान् के कुछ शब्द पड़ गये । भगवान ने सभा में देव की पहिचान बताते हुए कहा था ; --
"१ देव के चरण पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते, २ नेत्र टिमटिमाते नहीं, ३ उनकी माला मुरझाती नहीं और ४ शरीर प्रस्वेद एवं रज से लिप्त नहीं होता।"
इन वचनों को सुन कर भी वह पछताया, परन्तु विवश था। वह उन शब्दों को भूलाना चाह कर भी भूल नहीं सका । उसे खेद था कि वह अपने पिता को दिये हुए वचन का निर्वाह नहीं कर सका। .
__ अभयकुमार के निर्देशानुसार नगर-रक्षक ने सेना को गुप्त रूप से सज्ज किया और रोहिण के नगर-प्रवेश के अवसर की ताक में लगा रहा। उसे भेदिये ने सूचना दी-- "रोहिणिया अभी अमुक मार्ग से नगर में घुसा है।" सैनिकों द्वारा नगर घेर लिया गया। सभी मार्ग रोक दिये गये । इस बार वह पकड़ में आ गया। उसे बन्दी बना कर राज्यसभा में उपस्थित किया। उसका निग्रह करने के लिए राजा ने अभयकुमार को आदेश दिया। रोहिण को पूछा गया, तो उसने कहा--" में निर्दोष हूँ। मैने चोरी नहीं की, कभी नहीं की।" उससे पूछा--"तू कौन है और कहाँ रहता हैं ?"
- "मैं शालि ग्राम का रहने वाला 'दुर्गचण्ड' कृषक हूँ। मैं नगर देखने आया था । लौटते समय मुझे पकड़ लिया"--रोहिण ने कहा।
- "तू रोहिणिया चोर है और चोरी करने नगर में आया था। तू अपने को छुपा रहा है और झूठा परिचय दे रहा है"--महामन्त्री ने कहा ।
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