SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शालिभद्र चरित्र Jain Education International शालिभद्र चरित्र राजगृह नगर के निकट शालि ग्राम में 'धन्या' नाम की स्त्री-कहीं अन्य ग्राम से आ कर रही थी । उसके 'संगमक' नाम का एक पुत्र था। इसके अतिरिक्त उसका समस्त परिवार नष्ट हो चुका था । वह लोगों के यहाँ मजदूरा करता थी और संगमक दूसरों के बछड़े ( गौ-वत्स ) चराया करता था । किमी पर्वोत्सव के दिन सभी लोगों के यहाँ खीर बनाई गई थी। संगमक ने लोगों को खीर खाते देखा, तो उसके मन में भी खीर खाने की लालसा जगा । उसने घर आ कर माता से खीर बनाने का कहा । धन्या ने अपनी दरिद्रदशा बता कर पुत्र को समझाया, किन्तु बालक हठ पकड़ बैठा । धन्या अपनी पूर्व की सम्पन्न स्थिति और वर्त्तमान दुर्दशा का विचार कर रोने लगी। आसपास की महिलाएँ धन्या का विलाप सुन कर आई और रुदन का कारण पूछा । धन्या ने कहा- " मेरा बेटा खीर माँगता है। मैं दुर्भागिना हूँ। में भले घर की सम्पन्न स्त्री थी, परन्तु दुर्भाग्य से मेरी यह दशा हो गई । रूखा-सूखा खा कर पेट भरना भी कठिन हो गया, तब इसे खीर कहाँ से खिलाऊँ ? यह मानता ही नहीं है । अपनी दुर्दशा का विचार कर मुझे रोना आ गया " पड़ोसिन महिलाओं के मन में करुणा उत्पन्न हुई । उन्होंने दूध आदि सामग्री अपने घरों से ला कर धन्या को दी । धन्या ने खीर पकाई और एक थालों में डाल कर पुत्र को दी। पुत्र को खीर दे कर धन्या दूसरे काम में लग गई। इसी समय एक तपस्वी संत ने मासखमण के पारण के लिए, अपने अभिग्रह के अनुसार दरिद्र दिखाई देने वाली धन्या की झोंपड़ी में प्रवेश किया । संगमक थाली की खीर को ठण्डी होने तक रुका हुआ था । संगमक ने तपस्वी महात्मा को देखा, तो उसके हृदय में शुभ भावों का उदय हुआ । उसने सोचा- " धन्य भाग मेरे । ऐसे तपस्वी महात्मा मुझ दरिद्र के घर पधारे। यह तो कल्पवृक्ष के समान है । मेरे घर सोने का सूर्य उदय हुआ है। अच्छा हुआ कि ये चिन्तामणि रत्न समान महात्मा इस समय पधारे, जब कि मेरे पास उन्हें प्रतिलाभने के लिए खीर है ।" इस प्रकार विचार करते हुए उसने मुनिराज के पात्र में थाली ऊँडेल कर सभी खीर बहरा दी । तपस्वी संत के लौटने के बाद धन्या घर में आई । उसने देखा - थाली में खीर नहीं है । पुत्र खा गया है । उसने फिर दूसरी बार खीर परोसी । संगमक ने रुचि पूर्वक आकण्ठ खीर खाई । उसे अजीर्ण होकर रोगातंक हुआ । रोग उग्रतम हुआ, परन्तु संगमक के मन में तो तपस्वी संत और उन्हें दिये हुए दान की प्रसन्नता रम रही थी। उन्हीं विचारों में संगमक ने पूर्ण कर देह छोड़ी | आयु ३५७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy