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तीर्थकर चरित्र-भाग ३ ककककककककककककककककककककककककककककककवकनवनवकवदककवाद कर
का अभिवादन कर रहे थे । गायक गीत गाते जा रहे थे। हाथी-घोड़े नगाड़े आदि पकाबद्ध आगे चल रहे थे। चतुरंगिनी सेना भी साथ थी। राजा गर्वानुभूति से पुलकित होता हुआ समवसरण के निकट पहुँचा और हाथी से नीचे उतर कर समवसरण में प्रविष्ट हुआ। भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा की और वन्दना करने के पश्चात् गवित हृदय से योग्य स्थान पर बैठा ।
उस समय सौधर्मेन्द्र ने अपने ज्ञान से भगवान को देखा और दशार्णभद्र के अभिमान को जाना। उसने राजा का गर्व हटाने के लिये एक जलभरित विमान की विकर्वणा की।
जल भरा हुआ था। ऊपर सुन्दर एव विकसित कमल-पुष्प खिले हुए थे। हम और सारस पक्षी किलोल करते हुए मधुर नाद कर रहे थे । वह जलमय विमान उत्तम रीति से सजा हुआ मनोहारी था। उस जल कांत विमान में अनेक देवों के साथ इन्द्र बैठा हुआ था। देवांगनाएँ चामर विजा रही थी। गंधर्व गायन कर रहे थे। यह विमान स्वर्ग से उतर कर मनष्य लोक में आया और इन्द्र विमान से नीचे उतर कर ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हुआ। वह हाथी मणिमय आठ दाँत वाला था। उस पर देवदूष्य की झूल आच्छादित थी। देवांगनाएँ इन्द्र पर चामर डुला रही थी। समवसरण के समीप आ कर इन्द्र हाथी पर से नीचे उतरा और भक्तिपूर्वक प्रवेश किया। उस समय उसके जलकान्त विमान में रही हुई क्रीड़ा-वापिकाओं में रहे हुए प्रत्येक कमल से संगीत की ध्वनि निकलने लगी और प्रत्येक संगीत में एक इंद्र के समान वैभव वाला सामानिक देव दिखाई देने लगा। उस देव का परिवार भी महान् ऋद्धियुक्त और आश्चर्योत्पादक था। इन्द्र ने भगवान की वन्दना की। इन्द्र की एसी अपार ऋद्धि देख कर दशार्णभद्र नरेश आश्चर्य में डुब गए। उनका अहंकार नष्ट हो गया। वे अपने आपको क्षुद्र एवं कुपमण्डुकसा मानने लगे । उनके मन में ग्लानि उत्पन्न हुई, वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने वहीं वस्त्रालंकार उतार कर केश-तुंचन किया और दीक्षित हो कर भगवान् का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। इन्द्र पर विजय पाने का उन्होंने यही उपाय किया। दशार्णभद्र के दीक्षित होते ही इन्द्र उनके समीप आया और नमस्कार कर के बोला-- "महात्मन् ! आप विजयी हैं। मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूँ। मैं आपकी समानता नहीं कर सकता।"
मुनिराज दशार्णभ द्रजी संयम-तप की आराधना करने लगे। भगवान् ने वहाँ से विहार कर दिया।
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