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________________ श्रद्धा की परीक्षा ३४७ ..................................................... भगवान् का बताया हुआ उपाय श्रेणिक को सहज एवं सरल लगा। वह उत्साहपूर्वक वन्दना कर के लौटा। श्रद्धा की परीक्षा महाराजा श्रेणिक भगवान् को वन्दना करके अपने राज-भवन में लौट रहे थे। उस समय दर्दुराक देव ने राजा की धर्मश्रद्धा की परीक्षा करने के लिए, अपने को एक साधु के रूप में, मच्छी मारते हुए बताया। जब राजा ने उसे टोका, तो वह बोला;-- __ “देख राजा ! भगवान् महावीर के साधुओं को तुम उत्तम आचार-सम्पन्न साधु मानते हो. परन्तु ये मत्स्यमांस भक्षी हैं । कई साधु राजकुल और ऐसे घरों से आये हैं कि जिनमें मास-भक्षण होता था । साधु होने पर भी उनकी रुचि उसमें रही । वे सभी छुपछुप कर अपनी इच्छा पूरी कर रहे हैं । मैं भी उनमें से एक हूँ।" --"तू कोई दुराचारी होगा। भगवान के साधु तो महान्-त्यागी, शुद्धाचारी एवं तपस्वी हैं। यदि तुझ-से साधुता नहीं पलती, तो छोड़ इस पवित्र वेश को। तुझे लज्जा नहीं आती--इस वेश में ऐसा दुष्कृत्य करते ? फेंक इस जाल को और जा भगवान् के समीप अपनी आत्मा को शुद्ध करने । अन्यथा कठोर दण्ड दूंगा।" वह मायावी देव जाल फैक कर चला गया। आगे बढ़ने पर उसे एक सगर्भा साध्वी दिखाई दी, जो आसत्र प्रतवा थो। वह राजा के सामने ही अपने गर्भ का प्रदर्शन करती हई आ रही थी। राजा के पूछने पर उसने कहा-- ___“राजन् ! भगवान् ने स्वयं कहा कि 'काम दुतिक्रम' है। इसे देव और इन्द्र भी नहीं जीत सके । तुम्हारा पुत्र नन्दासेन कितना दम भरते थे, परन्तु उन्हें भी झुकना पड़ा, तब हम कैसे बच सकती हैं ? हजारों साध्वियाँ छुप कर व्यभिचार करती है । तुम किसे रोकागे ? मैं तुम्हारी दृष्टि में आ गई, परन्तु बहुत सी छुपी हुई है।" "पापिष्ठा ! तू अपना पाप छुपाने के लिए दूसरों को भी अपने जैसी बतल ती है। यह तेरी दूसरी अधमता है । छोड़ इस पवित्र वेश को और चल अन्तःपुर में । तेरे प्रसव का प्रबन्ध हो जायगा।" देव ने देखा कि श्रेणिक की श्रद्धा अडिग है । उसने प्रकट हो कर राजा की श्रद्धा की प्रशंसा की और इन्द्र द्वारा प्रशंसित होने का सुसम्न द सुनाया। विशेष में एक रत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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