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तीर्थकर चरित्र-भा. ३
जैसा प्रकाश बना रहने से उन्हें समय व्यतीत होने की स्मृति नहीं रही थी। इसी से वहाँ बैठी रही थी और अनजान में ही काल व्यतीत हुआ था, फिर भी दोष तो लग हो गया था। वे अपने अज्ञान पर खेद करती हुई धर्मध्यान के 'अपाय विचय' भेद का चिन्तन करती हुई 'विपाक विचय' पर पहुँची। एकाग्रता बढ़ने पर अपूर्वकरण कर के शुक्लध्यान में प्रविष्ट हो गई और घातिकर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। वे सर्वत्र सर्वदर्शी बन गई । उस समय महासती आर्या चन्दनाजी निद्रा ले रही थी और उनके निकट हो कर एक विषधर जा रहा था। निकट ही अन्य साध्वी का संथारा था । आर्या चन्दनाजी के हाथ से सर्प का मार्ग रुका हुआ था। यह स्थिति आर्या मगावतीजी ने केवलज्ञान से जानी और अपनी गुरुणीजी का हाथ उठा कर सर्प के लिए मार्ग बना दिया। महासती चन्दनाजी जाग्रत हो गई। उन्होंने पूछा--" मेरा हाथ किसने उठाया ?"
- "मैने ! आपके निकट हो कर सर्प जा रहा था। सर्प का मार्ग आपके हाथ से रुका हुआ था। इसलिए मैने उसे मार्ग देने के लिए आपका हाथ उठाया।"
- "इस घोर अन्धकार में तुमने काले नाग को कैसे देख लिया ? क्या तुम्हें विशिष्ट ज्ञान हुआ है"--विस्मय पूर्वक महासती चन्दनाजी ने पूछा।
-"हां, आपकी कृपा से मुझे केवलज्ञान-केवलदर्शन हुआ है।" ___ "अहो, मैने वीतराग केवलो की आशातना की। मुझे धिक्कार है"--इस प्रकार वे भी अपने अज्ञान--अपाय, का चिन्तन कहती हई अपूर्वकरण कर के शुक्ल-ध्यान में पहुँची और केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न कर लिया।
जिनप्रलापी गोशालक
श्रावस्ति नगरी में ‘हालाहला' नाम की कुंभकारिन रहती थी। वह वैभवशालिनी थी। गोशालक के आजीविक मत की वह परम उपासिका थी और अपने मत में पंडिता थी। आजीवक मत उसके रोम-रोम में बसा हुआ था । अपने मत को वह परम श्रेष्ठ मानती थी और अन्यमतों को अनर्थकारी समझती थी । गोशालक उसके कुंभ कागपण में रह कर अपने धर्म का प्रचार कर रहा था । गोशालक की दीक्षा-पर्याय का यह चौबी
* इससे पूर्व का वर्णन पृ. १८६ से हुआ है ।
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