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________________ जमाली अनगार के मिथ्यात्व का उदय पितज्वर हो गया और दाहज्वर से शरीर जलने लगा। उनका स्थिरतापूर्वक बैठना कठिन हो गया। उन्होंने श्रमणों से कहा--"मेरे लिये बिछौना-बिछाओ। मैं बैठ नहीं सकता।" श्रमणों ने आज्ञा शिरोधार्य की और विधिपूर्वक प्रमार्जना कर के संथारा बिछाने लगे। जमाली घबरा रहा था, उसे अति शीघ्र सोना था। उसने संतो से पूछा--"देवानुप्रिय ! मेरे लिए संथारा बिछा दिया, या बिछाया जा रहा है ?' संतो ने कहा--"देवानुप्रिय ! अभी बिछाया नहीं, बिछाया जा रहा है।" श्रमणों की बात सुन कर जमाली अनगार को विचार हुआ--श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन मिथ्या है कि--'जो चलायमान है, वह चलित है, उदीर्यमाण उदीरित है, वेदिज्यमान वेदित है, गिर रहा है, वह गिरा, छेदायमान छिदा, भिदाता हुआ भिदा, जलता हुआ जला, मरता हुआ मरा और निर्जरता हुआ निर्जरित है। मैं यहाँ प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि मेरे लिये शय्यासंस्तारक बिछाया जा रहा है, अभी बिछा नहीं है । जब तक बिछाने की क्रिया चल रही है, तब तक वह 'बिछाया' एसा नहीं कहा जा सकता। इसलिये भगवान् का कथन असत्य है, मिथ्या है। जो चलायमान है, उसे चलित आदि कहना सरासर मिथ्या है। क्रियमाण को कृत कहना सत्य नहीं हो सकता ।" जमाली ने श्रमण-निग्रंथों को बुलाया और कहा-- "देवाणु प्रिय ! श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का सिद्धांत है कि 'चलायमान' चलित है, यावत् निर्जीयमान निर्जीणं है, यह मिथ्या है, असत्य है। मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ x जमाली ने अनर्थ कर दिया। टीकाकार और ग्रन्थकार ने लिखा है कि जो कार्य किया जाता है, वह प्रथम समय में हुआ, तभी तो आगे भी हुआ और पूर्णता को प्राप्त हुआ। यदि प्रारम्भ ही नहीं, तो अन्त किसका? वस्त्र बुनने में प्रथम सूत का बुनना बुनियादी निर्माण है । यदि प्रथम तंतु नहीं तो वस्त्र ही नहीं, इत्यादि। मैं सोचता हूँ कि भगवान का सिद्धांत कर्म के चलितादि स्वरूप सम्बन्धी है और वह अनिवार्य है। उसमें किसी प्रकार की रोक नहीं हो सकती। चलित कर्म चला ही है। परन्तु बिछौने की क्रिया वैसी नहीं है। वह बिछाते-बिछाते रुक भी सकती है। संतों ने जमाली को उत्तर दिया, वह इस व्यावहारिक क्रिया सम्बन्धी था कि--"णो खल देवाणुप्पिया ! णं सेज्जासंथारए कडे, कज्जइ।" अर्थात--बिछौना किया नहीं, कर रहे हैं। भगवान् का सिद्धांत निश्चय से सत्य है। जो कर्म चलता हआ--बद्ध दशा से का वह चला ही है, रुका नहीं, रुकता भी नहीं, वेदन में आते ही वेदा गया-फलभोग हआ। उसमें से खिसका वह चला ही, रुका नहीं, वेदन में आते ही वेदा गया--फलभोग हुआ। उसमें अन्तर नहीं पड़ा। कर्म की अवस्था से सम्बंधित सिद्धांत का बिछौने की मनुष्य-कृत क्रिया से तुलना कर के खण्डित करना ही जमाली की भूल थी। मिथ्यात्व के उदय से वह भ्रमित हो गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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