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________________ २७८ ဖုန်းသုံးနန်းနန်းနနနနနနန်းနန် तीर्थकर चरित्र-भाग ३ मागध-मन्त्री की बिदाई के समय आर्द्रकुमार ने अभयकुमार के लिए आदरयुक्त स्नेहसिक्त शब्दों के साथ बहुमुल्य मणि-मुक्तादि भेंट स्वरूप दिये । राजगृह पहुँच कर मन्त्री ने आद्रक नरेश का सन्देश और भेंट श्रेणिक महाराज को सममित किये और राज कुमार आर्द्र का भ्रातृभाव पूर्ण सन्देश एवं भेंट अभयकुमार को अर्पण की। आद्रकुमार का मनोभाव जान कर अभयकुमार ने सोचा--आर्द्रकुमार कोई प्रशस्त आत्मा लगता है । कदाचित् वह संयम की विराधना करने के कारण अनार्य देश में उत्पन्न हुना है, किन्तु वह आसन्न भव्य होगा। इसीलिये उसने मुझ से सम्बध जोड़ा। अब मेरा कर्तव्य है कि उस को सन्मार्ग पर लाने का कछ प्रयत्न करूं। मैं ऐसा निमित्त उपस्थिन करूँ कि, जो उसके पूर्व संस्कार जगाने और जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न करने का निमित्त बन। उन्होंने साधुता का स्वरूप बताने वाले उपकरण रजोहरण-मुखवस्त्रिका दि भेजे । अन्य बहुमूल्य आभूषणादि रख कर पेटिका बन्द कर दी और ताला लगा कर मन्त्री के साथ आये हुए आर्द्रक के रक्षकों को दी और राजकुमार को सूचित कराया कि वे इस पेटिक' को एकान्त स्थान में खोले । महाराजा श्रेणिक ने भी आर्द्रक नरेश के लिए मल्पव न : दे कर उन्हें बिदा किया । स्वस्थान पहुँच कर महाराजा और राजकुमार को उपहार यमपित किये राजकमार को अभयकमार का सन्देश सुनाया। आईकमार उपहार पेटिका लेकर एकान्त कक्ष में गए और पेटिका खोल कर उपहार देखने लगे। धर्मोपकरण देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ । वे सोचने लो--" यह क्या है ? यह कोई आभूषण है ? इन का उपयोग क्या हो सकता है ? एसो वस्तु इस प्रदेश में कहीं होती है क्या? ऐसी वस्तु पहले कभी मेरे देखने में आई है क्या ?'' इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्हें मुर्छा आ गई और अध्यवसाय विशुद्ध होने पर जातिस्मरण उत्पन्न हुआ ! वे सावधान हो कर अपना पूर्वभव देखने लगे। x त्रि. श. पु. च. में भगवान् ऋषभदेवजी की रत्नमय प्रतिमा भेजने का उल्लेख है। किन्तु मनिस्वरूप के दर्शन या उपकरण का निमित्त लगता है। जब उनके पूर्वभव में चारित्र पालने का अनुमान अभयकुमार ने लगाया, तो साधुत्व की स्मृति दिलाने वाली वस्तु भेजना ही उपयुक्त लगता है। मगा पुत्रजो ने भीसाहुस्स दरिसणे तस्स अज्झवसाणम्मि सोहणे" (उत्तरा. १९) साधु को देख कर जातिस्मरण पाया था। तीर्थकर का चित्र या मूर्ति देखी हो, तो भी आश्चर्य नहीं, क्योंकि चिनक ना अनादि से है। इससे पूजनीयतादि का सम्बन्ध नहीं जुड़ सकता तथा उस समय तीर्थंकरों की मूर्तिपूजा जैनियों में प्रचलित रही हो--ऐसा कोई प्रामाणिक आधार भी नहीं है। अतएव साधता के उपकरण भेजना उचित लगता है। और राज For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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