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________________ अभयकुमार ने कहानी सुना कर चोर पकड़ा " बन्धुओं ! नाटक होने में विलम्ब हो रहा है और हम सब अकुला रहे हैं। इस समय आपका मनोरंजन करने के लिए में एक वहानी आपको सुनाऊँगा । आप शान्तिपूर्वक सुने । वसंतपुर नगर में एक निर्धन सेठ रहता था। उसके एक रूपवती पुत्री थी। वह यौवनव प्राप्त कर चुकी थी । उत्तम वर प्राप्त करने के उद्देश्य से वह युवतां कामदेव की पूजा करने लगी । पूजा के लिए एक पुष्पाराम से वह पुष्प चुराती रही। एक दिन उद्यानपालक चोर पकड़ने के लिए छुप कर बैठा । सुन्दरी को फूल तोड़ते देख कर निकला और निकट जा पहुँचा । उद्यानपालक चोर पर क्रुद्ध था और कठोर दण्ड देने के उद्देश्य से छुपा था । परन्तु रूपसुन्दरी को देख कर मोहित हो गया । उसने सुन्दरी से कहा- " तू चोर है । मैं नगरभर के सामने तेरा पाप रख दूंगा और राज्य से दण्डित भी करवाऊँगा । यदि तू मेरी कामेच्छा पूरी करे, तो मैं तुझे क्षमा कर दूंगा । इसके सिवाय तेरे छुटने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ।" हूँ और युवती की स्थिति बड़ी संकटापन्न बन गई । उसने विनयपूर्वक कहा - " मैं कुमारी पुरुष के स्पर्श के योग्य नहीं हूँ । इसलिये तुम्हारी माँग स्वीकार नहीं कर सकती ।" "यदि तू सच्चे हृदय से मुझे वचन दे कि लग्न होने के बाद सर्व प्रथम मेरे पास आएगी और मेरी इच्छा पूरी करने के बाद पति को समर्पण करेगी, तो मैं तुझे अभी छोड़ सकता हूँ" - उद्यानपालक ने शर्त रखी । युवती ने उसकी शर्त स्वीकार की और मुक्त हो गई । कालान्तर में उसका लग्न एक योग्य एवं उत्तम वर के साथ हो गया । वह पति के शयनकक्ष में गई और पति से निवेदन किया; " प्राणेश्वर ! मैं आपकी ही पत्नी हूँ। मेरा कौमार्य सुरक्षित है । परन्तु एक संकट से बचने के लिये मैने उद्यानपालक को वचन दिया था कि लग्न होने के पश्चात् - पति को समर्पित होने के पूर्व- तुम्हें समर्पित होऊँगी। ऐसा वचन देने के पश्चात् ही में उस संकट से उबर सकी थी। आज उस वचन को पूरा करने का अवसर उपस्थित हो गया है । मुझे मेरा वचन निभाने की आज्ञा प्रदान करने की कृपा ही में वचन बद्ध हूँ ।" करें। बस एकबार के लिये पत्नी की सत्यप्रियता एवं स्वच्छ हृदय देख कर पति ने दिये हुए वचन का पालन करने की अनुमति दे दी। पति की अनुमति प्राप्त कर वह सुन्दरी उद्यानपालक से मिलने चल निकली। वह युवती सद्य परिणता थी । उसके अंग पर बहुमूल्य रत्नाभरण पहिने Jain Education International - २७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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