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ज्येष्ठा रही चिल्लना गई
स्थान, समय, दिन आदि का निश्चय कर के तदनुसार महाराजा के आने वा आश्वासन दे कर दासी को बिदा की। दासी ने राजकुमारी से कहा । राजकुमारी की स्वीकृति दासी ने अक्षयकुमार को सुनाई ।
अभयकुमार का वैशाली का काम बन गया । दूकान समेट कर वह राजगृह लौट आया और अपने कार्य की जानकारी नरेश को दी. तत्पश्चात् वन से लगा कर वैशाली के भवन तक सुरंग बनवाने के कार्य में लग गया। उधर सुज्येष्ठा आकुलता पूर्वक श्रेणिक के ही चितन में रहत लगो । मिलन का निर्धारित दिन निकट आ रहा था और सुरंग भी खुद कर पूर्ण हो चुकी था । निश्चित समय पर श्रेणिक नरेश अपने अंग-रक्षकों के साथ सुरग के द्वार पर पहुँच गए। सुज्येष्ठा उनके स्वागत के लिए पहले से ही उपस्थित थी । चित्र के अनुसार ही दोनों ने अपने प्रिय को देखा और प्रसन्न हुए ।
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सुज्येष्ठा रही चिल्लना गई
सुज्येष्ठा ने अपने प्रणय और तत्संबंधी प्रयत्न आदि का वर्णन अपनी सखी के समान प्रिय बहिन चिल्लना को सुनाई और प्रिय के साथ जाने की अनुमति माँगी, तो विकलता बोली " 'बहिन ! में तेरे बिना यहाँ अकेली नहीं रह सकूंगी । मुझे भी अपने साथ ले चल । "
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सुज्येष्ठा सहमत हो गई और उसे श्रेणिक के साथ कर स्वयं अपने रत्नाभूषण लेने भवन में आई। उधर श्रेणिक और विल्लना, सुज्येष्ठा की प्रतीक्षा कर रहे थे । सुज्येष्ठा को लौटने में विलम्ब हो रहा था, तब अंगरक्षकों ने कहा - " महाराज ! भय का स्थान । यहां ठहरना विपत्ति में पड़ना है । अब चलना ही चाहिये ।" राजा चिल्लना को ले कर सुरंग में घुस गया और बाहर खड़े रथ में बैठ कर राजगृह की ओर चल दिया ।
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सुज्येष्ठा को लौटने में विलम्ब हो गया था। जब वह उस स्थान पर आई, तो उसका हृदय धक से रह गया । वहाँ न तो उसका प्रेमी था और न बहिन । उसे लगा'श्रेणिक मुझे ठग गया और मेरी बहिन को ले कर चला गया ।' निष्फल- मनोरथ सुज्येष्ठा उच्च स्वर में चिल्लाई- ' दौड़ो, दौड़ो, मेरी बहिन का अपहरण हो गया ।"
सुज्येष्ठा की चिल्लाहट सुन कर चेटक नरेश शस्त्रसज्ज हो कर निकलने लगे, तो उनके वीराँगक नामक रथिक ने नरेश को रोका और स्वयं सुरंग में घुसा। आगे चलने पर
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