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तीर्थकर चरित्र-भा. ३
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अभय को बुद्धिमत्ता से श्रेणिक सफल हुआ अभयकुमार ने पिता की खिन्नता का कारण जान कर कहा-"पूज्य ! खेद क्यों करते हैं । में आपका मनोरथ सफल करूँगा।" पिता को आश्वासन दे कर अभय स्वस्थ न आया और पिता का चित्र एक पट पर आलेखित किया । फिर गुटिका के प्रयोग से अपना स्वर तथा रूप परावर्तन एवं आकृति पलट कर एक वणिक के वेश से वैशाली पहुँचा ! राजा के अन्तःपुर के निकट एक स्थान भाड़े से ले कर दूकान लगा ली। अन्त.पुर की दासियाँ कोई वस्तु लेने आवे, तो उन्हें कम मूल्य में-सस्तो-देने लगा। उसने श्रेणिक राजा के चित्र को दूकान में दर्शनीय स्थान पर लगाया और बारबार प्रणाम करने लगा। उसे प्रणाम करते देख कर दासियाँ पूछने लगी;-"यह किस का चित्र है ?" उसने कहा-“यह चित्र मगध देश के स्वामी महाराजाधिराज श्रेणिक का है । ये महाभाग मेरे लिये देवतुल्य हैं।' श्रेणिक का देवतुल्य रू। दासियों ने देखा और उन्होंने राजकुमारी सुज्येष्ठा से कहा। राजकुमारो ने अपनी विश्वस्त दासी से कहा-"तू जा और दुकानदार से वह चित्र ला कर मुझे बता।" दासी अभयकुमार के पास आई और चित्र माँगा । अति आग्रह और मिन्नत करवाने के बाद अभयकुमार ने वह चित्र दिया । सुज्येष्ठा चित्र देख कर मुग्न हा गई और एकाग्रता पूर्वक देखने लगी। राजकुमारी के हृदय में श्रेणिक ने स्थान जमा लिया। उसने अपनी सखी के समान दासी से कहा
हे सखी ! यह चित्रांकित देव पुरुष तो मेरे हृदय में बस गया है। अब यह निकल नहीं सकता। इससे मेरा योग कैसे मिल सकता है ? ऐसा कौन विधाता है जो मुझे इस प्राणश से मिला दे ? यदि मुझे इस अलौकिक पुरुष का सहवास नहीं मिला, तो मेरा हृदय रियर नहीं रह सकेगा। मुझे तो इसका एक ही उपाय दिखाई देता है कि किमा प्रकार उस व्यापारी को तु प्रसन्न कर । वह चित्र को प्रणाम करता है, इसलिए नित्रवाल तक उसको पहुँच होगी ही । यदि वह प्रसन्न हो जायगा, तो कार्य सिद्ध हो जायगा। तु अभी उसके पास जा और शीघ्र ही उसकी स्वीकृति सुना कर मेरे मन को शान्त' कर ।'
दासी के आग्रह को अभयकुमार ने स्वीकार किया और कहा-"तुम्हारी स्वामिनी का कार्य में सिद्ध कर दूंगा । परन्तु इसमें कुछ दिन लगेंगे । मैं एक सुरंग खुदव अंग
और उस सुरंग में से महाराज श्रेणिक को लाऊँगा । चित्र के अनुसार उन्हें पहिचान कर तयारी स्वामिनो उनके साथ हो जायगी । सुरा के बाहर रथ उपस्थित रहेगा । ३ । प्रकार उनका संयोग हो सकेगा।"
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