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श्रेणिक का विदेश गमन
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हो ?” तो जाने वाला कहता--" राजा के गृह (घर) जा रहा हूँ ।" इससे नगर का नाम
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" राजगृह" हो गया ।
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राजगृह नगर की रचना भव्यता से परिपूर्ण और रमणीय थी। सभी प्रकार की सुविधाओं और दर्शनीयता से वह नगर संसार के अन्य नगरों से श्रेष्ठ था ।
श्रेणिक का विदेश गमन
प्रसेनजित नरेश ने सोचा--" एक श्रेणिक ही राज्य का भार उठाने के योग्य है । परन्तु श्रेणिक की योग्यता इसके ाइयों को खटकेगी। वे सभी अपने को योग्य और राज्य पाने का अधिकारी मानते हैं । मेरा झुकाव श्रेणिक की ओर होना, अन्य कुमारों को ज्ञात हो जायगा, तो वे सब इसके शत्रु हो जावेंगे ।" इस प्रकार सोच कर राजा ने श्रेणिक की उपेक्षा की और अन्य कुमारों को राज्य के विभिन्न प्रदेश, जागीर में दे कर वहाँ के शासक बना दिये । श्रेणिक की उपेक्षा राजा का यह हेतु था कि शेष सारा राज्य तो श्रेणिक
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का ही होगा ।
अपने भाइयों को तो राज्य मिला और स्वयं उपेक्षित रहा । यह स्थिति श्रेणिक को अपमानकारक लगी । अब उसने यहां रहना भी उचित नहीं समझा। वह राज्यभवन ही नहीं, नगर का भी त्याग कर के निकल गया ।
श्रेणिक का नन्दा से लग्न
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वन-उपवन और ग्रामादि में भटकता हुआ श्रेणिक एक दिन वेणातट नगर में आया और 'भद्र' नाम के एक श्रेष्ठी की दुकान पर बैठा । उस समय उस नगर कोई महोत्सव हो रहा था । इसलिये सेठ की दुकान पर ग्राहकों की भीड़ लग रही थी सेठ भी ग्राहकों को वस्तु देते-देते थक गये थे । उन्हें सहायक की आवश्यकता थी । श्रेणिक, सेठ की कठिनाई समझ गया । वह सेठ के स्थान पर जा बैठा । सेठ वस्तु ला कर देते और वह पुड़िया बाँध कर ग्राहक को देता । इस प्रकार सेठ का काम सरल हो गया और लाभ भी विशेष हुआ । ग्राहकों को निपटाने के बाद सेठ ने पूछा - " आप यहाँ किस महानुभाव के यहाँ अतिथि हुए हैं ?" श्रेणिक ने कहा--" आप ही के यहाँ ।" सेठ चौंका । उसे आज स्वप्न में अपनी पुत्री के योग्य वर दिखाई दिया था। वह इस युवक जैसा ही था । सेठ ने
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