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________________ २३४ करबकाकदवकचककतकनचकाकवचनकवनचक्कककककककककककककककककककककककककककककका तीर्थकर चरित्र भाग ३ कट जाने पर मोक्ष हो जाता है । वेद से और जीवों की विविध प्रकार की अवस्था से, कर्म का अस्तित्व सिद्ध है। शुद्ध ज्ञान-दर्शन और चारित्र से कर्म-बन्धन कटते हैं। इससे मुक्ति होती है । अतिशयज्ञानो के लिए मुक्ति प्रत्यक्ष है।" प्रभासजी दीक्षित हो कर ग्यारहवें गणधर हुए । इनके तीन सौ शिष्य भी दीक्षित हो गए। इस प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न ग्यारह महान् विद्वान् पंडित, प्रतिबोध पा कर अपने छात्र-समूह के साथ भगवान् महावीर प्रभु के शिष्य एवं गणधर हुए । चन्दनबाला की दीक्षा और तीर्थ-स्थापना भगवान् के समवसरण में देवी-देवता आकाश-मार्ग से आ रहे थे। उन्हें जाते हुए शतानिक राजा के भवन में रही हुई चन्दना ने देखा। उसे निश्चय हो गया कि भगवान् को केवलज्ञान हो गया है। उसमें भगवान् के समवसरण में जा कर दीक्षित होने की उत्कट इच्छा हुई । जिसके पुण्य का प्रबल उदय हो, उसकी इच्छा तत्काल सफल होती है । निकट रहे हुए देव ने चन्दना को ले जा कर भगवान् के समवसरण में रखा । उस समय भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो कर समवसरण में उपस्थित अनेक राजकुमारियां आदि भी प्रव्रज्या ग्रहण करने को तत्पर हुई । भगवान् ने चन्दना की प्रमुखता में सभी को प्रव्रज्या प्रदान की । हजारों नर-नारी देश-विरत श्रावक बने । इस प्रकार चतुर्विध संघ की स्थापना हुई। ये ग्यारह प्रमुख शिष्य भगवान् से 'उत्पाद व्यय और धौव्य' रूप त्रिपदी-बीजभूत सिद्धांत-सुन कर सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता हो गए । बीजभूत ज्ञान उचित आत्म-भूमि के योग से अन्तर्मुहूर्त में ही महान् कल्पवृक्ष जैसा बन कर, समस्त श्रुतरूप महाफल प्रदायक हुआ । इन महान् आत्माओं में 'गणधर नामकर्म' का उदय था । इन्होंने भगवान् के उपदेश का आश्रय ले कर आचारांगादि द्वादशांग श्रुत की रचना की। __ भगवान् के मुख्य गणधर तो इन्द्रभूतिजी थे, परन्तु भगवान् ने गण की अनुज्ञा x त्रि.श.पु. च. में भगवान् के ग्यारह गणधर और ९ गण होने का उल्लेख है । कारण यह बताया है कि-श्री इन्द्रभूतिजी आदि सात गणधरों की सूत्रवाचना पृथक-पृथक हुई, सो इनके सात गण हुए। अकंपित और अचलभ्राता की एक तथा मेतार्य और प्रभास गणधर की एक सम्मिलित वाचना हुई। इन चार गणधरों की दोवाचनाहई । इस प्रकार ग्यारह गणधरों के नौ गण और नौवाचना-सूत्र रचना-हई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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