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________________ နယုန်လုနီးနီနီလှလှ तीर्थकर चरित्र भाग ३ အလုံးလိုလိုမှန်နနနနနနနနနနနန် इसके राज्य का संचालन और रक्षण हम सब करेंगे । इसलिए हम एक-एक वर्ष यहाँ रह कर स्वयं व्यवस्था सँभालेंगे ।" प्रथम वर्ष की व्यवस्था कोशल नरेश दीर्घ ने संभाली । अन्य तीनों राजा वहाँ से चले गए। माता का दुराचार और पुत्र का दुर्भाग्य राजा दीर्घ राज्य का संचालन करने लगे। कुमार विद्याभ्यास कर रहा था। राजा दीर्घ का मन पलटा । वह ब्रह्मराजा का समृद्ध राज-भंडार और वैभव का यथेच्छ उपभोग करने लगा। इतना ही नहीं, गुप्त-भंडार का पता लगा कर हड़पने का मनोरथ करने लगा । वह अन्तःपुर में भी निःशंक जाता रहता था। पूर्व का परिचय उसे सहायक हुआ । उसके मन में राजमाता चुलनी का सौंदर्य घर कर गया। वह उस पर अत्यन्त मुग्ध हो गया। दीर्घ की कापुक-दृष्टि ने चुलनी को भी आकर्षित किया। उसमें भी वासना उत्पन्न हो गई । एक बार दीर्घ ने ब्रह्मदत्त के विवाह के विषय में गुप्त मन्त्रणा करने के निमित्त से चुलनी को एकान्त कक्ष में बुलाया । उन दोनों में अवैध सम्बन्ध हो गया। वे दुराचार में रत रहने लगे। . उनका पाप गुप्त नहीं रह सका। कर्तव्य-परायण 'धन' नामक वृद्ध मन्त्री की तीक्ष्ण-दृष्टि चुलनी और दीर्घ के व्यभिचार को भाँप गई। उसे किशोरवय के नरेश के जीवन और राज्य की रक्षा संदिग्ध लगी। वह सावधान हुआ । उसने अपने पुत्र 'वरधनु' के द्वारा ब्रह्मदत्त को सारी स्थिति समझा कर सावधान करने तथा उसकी रक्षार्थ सदा उसके साथ रहने की आज्ञा दी। वरधनु ने ब्रह्मदत्त को सारी स्थिति समझाई । माता के व्यभिचार और दीर्घ के विश्वासघात को वह सहन नहीं कर सका। माता की ओर से उसका मन फिर गया। वह घृणा से भर उठा । वह अपना कोप माता पर प्रकट करने की युक्ति सोचने लगा । एक दिन वह एक कौआ और एक कोकिला को हाथ में ले कर अन्तःपुर में गया और माता तथा दीर्घ को सुना कर कहने लगा--"धिक्कार है इस कोकिला को जो कौए +चक्रवर्ती सम्राट भी उत्तम पुरुष होते हैं। श्लाघनीय पुरुषों में उनका भी स्थान है। उत्तम पुरुषों की उत्पत्ति विशुद्ध कुलशील वाले माता-पिता से होती है । इसलिये चक्रवर्ती की माता व्यभिचारिणी हो. ऐसा कैसे हो सकता है ? परन्तु उदयभाव की विचित्रता और प्रबलता से ऐसा होना असंभव भी नहीं है। हम ग्रन्थ के उल्लेख का अनुसरण कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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