SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रभूति आदि गणधरों की दीक्षा २३१ rs •••••••••••••• ၈၈၈၈၈၈၈ န နန်းနန်း ဇနီးနီးနီး ဖ कर्म, अमूर्त जीव को पीड़ित कर सकता है ?'' इस प्रकार का सन्देह तुम्हारे मन में बसा हुआ है । परन्तु तुम्हारी शंका व्यर्थ है, क्योंकि कर्म मूर्त ही है--अतिशय ज्ञानियों के प्रत्यक्ष है । तुम्हारे जैसे छद्मस्थ नहीं देख सके, इसलिए कर्म अरूपी नहीं हो सकते। किन्तु छद्मस्थ भी जीवों की विभिन्नता एवं विचित्रता देख कर अनुमान से कर्म का अस्तित्व एवं कार्य प्रत्यक्ष देख सकते हैं। कर्म के कारण ही सुख-दुःखादि विचित्रता होती है । कई जीव मनुष्य हैं और कई पशु-पक्षी आदि, कोई मनुष्य समृद्ध हैं, तो कोई दरिद्र आदि प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । इन सब का कारण कर्म है । तथा अमूर्त आकाश का मूर्त घट आदि से सम्बन्ध के समान अमूर्त आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध जाना जा सकता है। जिस प्रकार मूर्त औषधी एवं विष से अमूर्त आत्मा का अनुग्रह और उपघात होना प्रत्यक्ष है । इस प्रकार अमूर्त आत्मा के साथ कर्मों का संबंध जाना जा सकता है।" अग्निभतिजी का समाधान हो गया। वे भी अपने पाँच सौ विद्यार्थियों के साथ दाक्षित हो गए । अग्निभूतिजी भगवान् के दूसरे गणधर हुए। ३ जब इन्द्रभूति और अग्निभति दोनों ही निग्रंथ-श्रमण बन गए, तो वायुभति ने सोचा--" मेरे दोनों समर्थ-बन्धुओं पर कुछ क्षणों में ही विजय प्राप्त कर के अपना शिष्य बना लेने वाला अवश्य ही सर्वज्ञ होगा। मैं भी जाऊँ और अपने दीर्घकालीन सन्देह को दूर करूँ।" इस प्रकार विचार कर वे भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ समवसरण में आये । भगवान् ने कहा-- “वायुभूति ! तुम भी एक भ्रम में उलझ रहे हो । तुम्हें शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व स्वीकार नहीं है । तुम मानते हो कि जिस प्रकार जल में बुलबुला प्रकट हो कर पुनः उसी में लय हो जाता है, उसी प्रकार शरीर से ही चेतना प्रकट होती है और शरीर में ही विलीन हो जाती है, शरीर से भिन्न जीव नहीं हो सकता। किन्तु तुम्हारा ऐसा विचार सत्य से वंचित है । क्योंकि जीव सभी प्राणियों को कुछ अंशों में प्रत्यक्ष भी है.। इच्छा, आकांक्षा आदि गुण प्रत्यक्ष है । इच्छा, जीव--चेतना में ही होती, जड़ शरीर में नहीं। जीव में संवेदना है और वह अनुभव करता है । यह अनुभव शरीर नहीं करता । जीव, शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है। किसी अंग या इन्द्रिय का छेदन हो जाने पर भी उसके द्वारा पूर्व में हुआ अनुभव नष्ट नहीं होता, स्मृति में बना रहता है ।". भगवान् की सर्व सन्देह नष्ट करने वाली वाणी सुन कर वायुभूतिजी भी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गए । वायुभूतिजी तीसरे गणधर हुए। ४ व्यक्त पंडित ने सोचा-"सचमुच वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी ही है--जिसने तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy