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________________ २३० तीर्थङ्कर चरित्र--भाग ३ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक ककक्क्य घन आत्मा भूतसमुदाय से ही उत्पन्न होती है और उसी में तिरोहित हो जाती है* ।'' इस पर से तुम जीव का अस्तित्व नहीं मानते। किन्तु यदि जीव नहीं हो, तो पुण्य-पाप का पात्र हो कौन हो और यज्ञ आदि करने की आवश्यकता ही क्या है ? तुमने 'विज्ञानघन' आ द श्रुति का अर्थ ठीक नहीं समझा। विज्ञान-घन का अर्थ 'भूत-समुदायोत्पन्न चेतन-पिण्ड' नहीं किन्तु जोत्र को उत्पाद व्यय युक्त ज्ञानपर्याय है। आत्मा की ज्ञान-पर्याय का आविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है । 'भूत' शब्द का अर्थ-'पृथिव्यादि पंच महाभूत' नहीं कर के "जीव अजीव रूप समस्त ज्ञेय पदार्थों से है," इत्यादि । गौतम समझ गये । उनका सन्देह नष्ट हो गया। वे भगवान् के चरणों में नतमस्तक हो कर बोले--"भगवन् ! मैं अज्ञान रूपी अन्धकार में भटक रहा था और अपने को समर्थ मान रहा था। आज आपकी कृपा से मेरा अज्ञान नष्ट हो गया । आपने मेरा भ्रम दूर कर दिया। आप समर्थ हैं, सर्वज्ञ हैं । मैं आपका शिष्य हूँ। मुझे स्वीकार कीजिये--प्रभो!" इन्द्र भूतिजी के साथ उनके ५०० छात्र शिष्य भी प्रवजित हो कर निग्रंथ-श्रमण बन गए । उन्हें कुबेर ने धर्मोपकरण ला कर दिये । ये इन्द्रभूतिजी भगवान् के प्रथन गणधर हुए। २ इन्द्रभूति के दीक्षित होने की बात अग्निभूति के कानों तक पहुँची तो वे चकराय"अरे, इन्द्र भतिजी जैसा समर्थ एवं अद्वितीय विद्वान भी उस इन्द्रजालिक के प्रभाव में आ कर ठगा गये ? मैं जाता हूँ और देखता हूँ कि वह कैसे ठग सकता है ?" अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ अग्निभूति भी समवसरण में आये और ये भी इन्द्रभतिजी के समान आश्चर्य से चकित रह गए । वे कल्पना भी नहीं कर सके कि इतना लोकोत्तम व्यक्तित्व भी किमो पथ्य का हो सकता है । भगवान् ने उन्हें पुकारा-- हे गौतम गोत्रीय अग्निभूति ! तुम्हारे मन में कर्म के अस्तित्व के विषय में मन्देह है । जिस प्रकार जीव आँखों से दिखाई नहीं देता उसी प्रकार कर्म भी दिखाई नही देते । किन्तु जोव अरूपी और कर्म रूपो कहे जाते हैं और अमूर्त जीव को रूपी कर्मों का बन्धन माना जाता है । क्या कहीं अरूपी भी रूपी कर्मों से बन्ध सकता है ? और मूर्त * विशेषावश्यक गा. १५४९ आदि और उसकी वृत्ति पर से । इसमें गणधर-वाद बहुत विस्तार से दिया है। यह पृथक से देने का विचार है । लगता है कि आचार्य श्री ने यह विस्तार किया है। संकेत मात्र मे समझने वाले गणधरों को भगवान ने थोड़े में ही समझाया होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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