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________________ २०४ ककक तीर्थंकर चरित्र - भाग ३ ककककककककककककककककक कककककककककक चमरेन्द्र का शक्रेन्द्र पर आक्रमण और पलायन उस समय भवनपति देवों की चमरचंचा राजधानी, इन्द्र से शून्य थी । वहाँ का इन्द्र मर चुका था और कोई नया इन्द्र उत्पन्न नहीं हुआ था । पूरन तपस्वी बारह वर्ष की साधना और एक मास का अनशन पूर्ण कर, आयु समाप्त होने से मर कर चमरचना राजधानी में 'चमर' नामक इन्द्रपते उत्पन्न हुआ और सभी पर्याप्तियों से पूर्ण होने के बाद उसने अपने अवधिज्ञान के उपयोग से ऊपर देखा । अपने स्थान से असंख्येय योजन ऊँचे, ठीक अपने ऊपर ही प्रथम स्वर्ग के अधिपति सौधर्मेन्द्र - -- शक्र को दिव्य भोग भोगते हुए देखा । शक्रेन्द्र को देखते ही उसे क्रोध उत्पन्न हुआ । उसने अपने सामानिक देवों से पूछा" मैं स्वयं देवेन्द्र हूँ, फिर मेरे ऊपर यह कौन निर्लज्ज दिव्य भोग भोग रहा है। इसका जीवन अब समाप्त होने ही वाला है । मैं इसकी यह धृष्टता सहन नहीं कर सकता ।" 'महाराज ! वह प्रथम स्वर्ग का स्वामी देवेन्द्र शक है । महान् ऋद्धि और पराक्रम वाला है -- आपसे भी बहुत अधिक । उसकी ईर्षा नहीं करनी चाहिए। यदि आप साहस करेंगे, तो सफल नहीं होंगे । इसलिये आप उधर नहीं देख कर अपनी प्राप्त समृद्धि में संतुष्ट रहें और सुखोपभोगपूर्वक जीवन सफल करें ।" सामान्य परिषद् के देवों ने विनयपूर्वक कहा । "1 चमरेन्द्र को इस उत्तर से संतोष नहीं हुआ । उसका रोष तीव्र हुआ । उसने क्रोध Jain Education International में दांत पीसते हुए कहा- "हाँ, देवेन्द्र देवराज शक्र कोई है और महान् ऋद्धि सम्पन्न है और असुरेन्द्र चमर अन्य है और अल्प ऋद्धि का स्वामी है, क्यों ? इन्द्र एक ही हो सकता है, दो नहीं । मैं अभी जाता हूँ और शक्रेन्द्र को पदभ्रष्ट कर के उसकी समस्त ऋद्धि तथा देवांगनाओं को अपने अधिकार में लेता हूँ । तुम डरते हो तो यहीं रहो ।" इस प्रकार रोषपूर्वक बोला । वह क्रोध में लाल हो रहा था । उसे ऊर्ध्वलोक में जा कर शक्रेन्द्र को पदभ्रष्ट कर उसकी सत्ता हथियाना था। परन्तु उसे वहाँ तक जाने में किसी महाशक्ति के अवलम्बन की आवश्यकता थी । उस समय भगवान् महावीर स्वामी के दीक्षा पर्याय के छद्मस्थकाल का ग्यारहवाँ वर्ष चल रहा था और निरन्तर बेले-बले की तपस्या कर रहे । भगवान् सुंसुमारपुर के अशोकवन में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिला पर, तेले के तप सहित एक रात्रि की भिक्षु की महाप्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ खड़े For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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