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तीर्थङ्कर चरित्र - - भाग ३
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विद्युतेन्द्र द्वारा भविष्य कथन
गोकुल से विहार कर भगवान् आलभिका नगरी पधारे और प्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ हो गए । वहाँ भवनपति जाति का हरि नाम का विद्युतेन्द्र प्रभु के पास आया और प्रदक्षिणा तथा वन्दन- नमस्कार कर के बोला- " प्रभो ! आपने जो भयंकरतम उपसर्ग सहन किये हैं, उन्हें सुन कर तो हमारे भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं । वास्तव में आपका हृदय, वज्र से भी अधिक दृढ़ है । आपने अब तक बहुत कर्म क्षय कर दिये, परन्तु अभी थोड़े और भी भोगने शेष रहे हैं । इसके बाद आप चारों घातीकर्मों को नष्ट कर के सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जावेंगे । इतना निवेदन कर के और वन्दन नमस्कार कर के विद्युतेन्द्र चला गया। इसके बाद भगवान् श्वेताम्बिका नगरी पधारे। वहाँ हरिसह नामक विद्युतेन्द्र आया और उसी प्रकार वन्दनादि कर के तथा भविष्य निवेदन कर के चला गया ।
शक्रेन्द्र ने कार्तिक स्वामी से वन्दन करवाया
श्वेताम्बिका से चल कर भगवान् श्रावस्ति नगरी पधारे और प्रतिमा धारण कर स्थिर हो गए। उस दिन नगरजन कार्तिक स्वामी का महोत्सव मना रहे थे । रथयात्रा की तैयारी हो रही थी । उधर शक्रेन्द्र ने ज्ञानोपयोग से भगवान् को देखा और साथ ही इस महोत्सव को भी देखा । लोगों के अज्ञान पर शक्रेन्द्र को खेद हुआ । उन्हें समझाने और प्रभु की बन्दना के लिए शकेन्द्र, स्वर्ग से चल कर श्रावस्ति आया और कार्तिक स्वामी की प्रतिमा प्रवेश कर के चलने लगा । सम्मिलित जनसमूह ने देखा तो जय जयकार करते
हुए परस्पर कहने लगे - " भगवान् कार्तिक स्वामी स्वयं चल कर रथ में बिराजमान होंगे । हमारी भक्ति सफल हो रही है ।" गगन भेदी घोष होने आगे बढ़ने लगी, तो लोग निराश हुए और मूर्ति के पीछे बाहर उद्यान में - जहाँ भगवान् ध्यानस्थ थे- आई वन्दना की । जनसमूह दिग्मूढ़ रह गया । उसने इष्टदेव के लिए भी पूज्य है । हमने इनकी उपेक्षा भगवान् को वन्दना की और महिमा गाई |
लगे । जब रथ छोड़ कर मूर्ति चलने लगे । वह मूर्ति नगर के और भगवान् को प्रदक्षिणा कर के सोचा कि -' यह महात्मा तो हमारे की, यह अच्छा नहीं किया। सभी ने
श्रावस्ति से चल कर
भगवान् कोशाम्बी नगरी पधारे । वहाँ सूर्य और चन्द्रमा ने
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