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________________ इन्द्र द्वारा प्रशंसा से संगम देव रुष्ट १९१ विपन्दकचकचकवचनम्वनचकचकनानन्दजनकल-कचहचहकवनचक्ककानदायक पुद्गल पर दृष्टि स्थापित कर भगवान् दिनभर खड़े नहे और ध्यान करते रहो और रात को दक्षिणाभिमुख रह कर ध्यान किया। दूसरे दिन पश्चिमाभिमख और रात्रि में उत्तराभिमुख रह कर ध्यान किया। इस प्रकार बेले के तप सहित प्रतिमा का पालन किया । साथ ही बिना प्रतिमा पाले भगवान् ने 'महाभद्र-प्रतिमा' अंगीकार कर ली और पूर्वादि दिशाओं के क्रम से चार दिनरात तक चोले के तप से इसका पालन किया । तत्पश्चात् सर्वतोभद्रप्रतिमा' अंगीकार की। इसमें दस उपवास (वाईस भक्त)कर के एक-एक दिनगत से दसों दिशाओं (चार दिशा, चार विदिशा और ऊर्ध्व-अधोदिशा) में एक पुदगल पर दृष्टि स्थिर कर के ध्यान किया। इस प्रकार लगातार सोलह उपवास कर के तीनों प्रतिमा पूर्ण की । भगवान् आनन्द गाथापति के यहाँ पारणे के लिये पधारे। वहाँ बहुला नामकी दासी गत रात के भोजन के बरतनों को साफ करने के लिये उनमें लगी हुई खुरचन निकाल कर बाहर फेंकने जा रही थी। उसी समय भगवान उसके दृष्टिगोचर हए । उसने पूछा-"महात्माजी ! आप यह लेंगे ?" भगवान् ने हाथ बढ़ाये और दासी ने भक्तिपूर्वक वह खुरचन भगवान् के हाथों में डाल दी । भगवान् के पारणे से प्रसन्न हुए देवों ने पाँच दिव्यों की वर्षा की और जय-जयकार किया । जनता हर्ष विभोर हो गई । नरेश ने बहुला दासी को दासत्व से मुक्त किया । .. इन्द्र द्वारा प्रशंसा से संगम देव रुष्ट भगवान् विहार करते हुए दृढ़भूमि में पेढाल गाँव पधारे । वहाँ म्लेच्छ लोग बहत थे । गाँव के बाहर पेढाल उद्यान के पोलास चैत्य में प्रभु ने तेले के तप सहित प्रवेश किया और एक शिला पर खड़े हो कर एक रात्रि की महाभिक्षु-प्रतिमा अगीकार कर के ध्यानस्थ स्थिर हो गए। सौधर्म स्वर्ग की सुधर्मा सभा में शकेन्द्र अपने सामानिक एवं त्रास्त्रिशक आदि . देवों की परिषद् में बैठे थे। उस समय देवेन्द्र ने अवधिज्ञान से भगवान् कोप्तोलास चैत्य में महाभिक्ष प्रतिमा में ध्यानस्थ देखा । देवेन्द्र का हृदय भक्ति में सराबोर हो गया। वह सिहासन से नीचे उतरा और बाया जानू खड़ा रखा और दाहिना भूमि पर स्थापित किया। फिर दोनों हाथ जोड़, मस्तक झुका कर भगवान् की स्तुति की। स्तुति करने के पश्चात् सिंहासन पर बैठ कर सभा में कहने लगा;-- "देव-देवियों ! इस समय तिरछे लोक के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के पेढाल गांव के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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