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वेशिकायन तपस्वी का आख्यान
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के लिये चम्पा नगरी गया और घी बेच कर नगरी की शोभा देखता हुआ गणिकाओं के मोहल्ले में गया। वहाँ के रंगढंग देख कर वह भी आकर्षित हुआ और भवितव्यतावश वह उसी वेशिका गणिका के यहाँ पहुँचा--जिसका वह पुत्र था। उसने उसे एक आभूषण दे कर अनुकूल बनाई । वहाँ से चल कर वह बनठन कर उस वेश्या के घर जा रहा था कि उसका पांव विष्ठा से लिप्त हो गया। उसकी कुलदेवी उसका पतन रोकने के लिये एक गाय और बछड़े का रूप बना कर मार्ग में आ गई । अहीरपुत्र, अपना विष्ठालिप्त पाँव बछड़े के शरीर पर घिस कर साफ करने लगा। गोवत्स ने अपनी मां से कहा-- "माँ माँ ! यह कैसा अधर्मी मनुष्य है जो अपना विष्ठालिप्त पाँव मेरे शरीर से पोंछता है ?" गाय मे उत्तर दिया--"पुत्र ! जो मनुष्य पशु के समान बन कर अपनी जननी के साथ व्यभिचार करने जा रहा है, उसकी बात्मा तो अत्यन्त पतित है। वह योग्यायोग्य का विचार कैसे कर सकेगा ?"
मनुष्य की बोली में गाय की बात सुन कर युवक चौंका । उसका कामज्वर उतर गया । उसने सच्चाई जानने का निश्चय किया। वह गणिका के पास आया। गणिका ने उसका आदर किया। किन्तु युवक का काम-ज्वर शांत हो चुका था। उसने पूछा-- "भद्रे ! मैं तुम्हारा पूर्व-परिचय जानना चाहता हूँ। तुम अपनी उत्पत्ति आदि का वृत्तांत मुझे सुनाओ।" गणिका ने युवक की बात की उपेक्षा की और मोहित करने की चेष्टा करने लगी । परन्तु युवक ने उसे रोक कर कहा--"यदि तुम अपना सच्चा परिचय दोगी, तो मैं तुम्हें विशेष रूप से पुरस्कार दूंगा।" उसने उसे शपथपूर्वक पूछा । युवक के आग्रह एवं पुरस्कार के लोभ से उसने अपना पूर्व वृत्तान्त सुना दिया। गणिका के वृत्तान्त ने युवक के मन में सन्देश भर दिया। वह वहाँ से चल कर अपने गांव आया और अहीर-दम्पति-- पालक माता पिता--से अपनी उत्पत्ति का वृत्तान्त पूछा । पहले तो उन्होंने उसे आत्मज ही बताया, परन्तु अन्त में सच्ची बात बतानी ही पड़ी। वह समझ गया कि गाय का कथन सत्य था । बेशिका गणिका ही उसकी जननी है । वह राजगृह गया और माता को अपना सच्चा परिचय दिया। वह लज्जित हुई । युवक ने द्रव्य दे कर नायिका को संतुष्ट किया और माता को मुक्त करवा कर अपने गांव लाया। उसने माता वेशिका को धर्म-पथ पर स्थापित किया । वेशिका के उस पुत्र का नया नाम 'वेशिकायन' प्रचलित हुआ। संसार की विडम्बना देख कर वह विरक्त हो गया और तापस-व्रत अंगीकार कर वह शास्त्राभ्यास करने लगा। अपने शास्त्रों में निष्णात हो कर वह ग्रामानुग्राम फिरने लगा। उस समय वह कूर्म ग्राम के बाहर, सूर्य के सम्मुख दृष्टि रख कर ऊँचे हाथ किये आतापना ले रहा था।
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