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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३
की चिन्ता से वे उद्विग्न हो गए । हताश हो कर वे इधर-उधर देखने लगे। उनकी दृष्टि कुछ मनुष्यों पर पड़ी। वे उनके निकट पहुँचे। वे ग्वाले थे और गायें चराने के लिए वन में आये थे। वे कुल चार मनुष्य थे। उन्होंने मुनिजी को प्रणाम किया और भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की। मुनिजी ने संसार की असारता एवं मनुष्यभव सफल बनाने का उपदेश दिया। वे चारों ही बोध पाये और मुनिजी से निग्रंथ-दीक्षा ले कर संयम और तप की आराधना करते हुए विचरने लगे। चारों में से दो मुनि तो निष्ठापूर्वक धर्म आराधना करते रहे, परन्तु दो मुनियों के मन में धर्म के प्रति निष्ठा नहीं रही। वे तपस्या तो करते रहे, परन्तु मन में धर्म के प्रति अश्रद्धा, अनादर एवं जुगुप्सा ने घर कर लिया । अश्रद्धा होते हुए भी संयम और तप के प्रभाव से काल कर के वे देवलोक में गये। देवायु पूर्ण होने पर वे दशपुर नगर में शांडिल्य ब्राह्मण की दासी से गर्भ से पुत्र के रूप में जन्मे । युवावस्था आते ही पिता ने उन्हें अपने खेतों की रखवाली के काम में लगाया। रात को वे खेत के निकट रहे हुए वट-वृक्ष की छाया में सो गए। वृक्ष की कोटर में से एक विषधर निकला
और दोनों भाइयों को डस लिया। वे दोनों मर कर कलिंजर पर्वत पर रही हुई हिरनी के उदर से उत्पन्न हुए। वे दोनों प्रीतिपूर्वक जीवन यापन करने लगे । किन्तु एक शिकारी का बाण लगने पर मृत्यु पाये और गंगा नदी के किनारे रही हुई हंसिनी के गर्भ से हंसपने उत्पन्न हुए । वहाँ भी पारधी की जाल में फंस कर मारे गए।
चित्र-संभूति++नमूची का विश्वासघात
हंस के भव से छूट कर दोनों जीव वाराणसी में भूतदत्त नाम के चाण्डाल की पत्नी की कुक्षि से पुत्रपने उत्पन्न हुए। उनका नाम 'चित्र' और 'संभूति' रखा गया। दोनों भाइयों में स्नेह-सम्बन्ध प्रगाढ़ था । वे साथ ही रहते, खाते और क्रीड़ा करते थे।
वाराणसी के शंख नरेश का 'नमूची' नाम का प्रधान था । नमूची पर नरेश ने एक गम्भीर अपराध का आरोप लगा कर मृत्यु-दण्ड दिया और वन में लेजा कर मारने के लिये भूतदत्त चाण्डाल को सौंप दिया। भूतदत्त नमूची को ले कर वन में आया। फिर नमूची से बोला--"यदि तुम भू-गृह में गुप्त रह कर मेरे चित्र और संभूति को पढ़ाया करो, तो मैं तुम्हें प्राणदान दे कर तुम्हारी रक्षा करूँगा । बोलो स्वीकार है तुम्हें ? खानपान मेरे यहाँ ही होगा।" नमूची मृत्युभय से भयभीत था । वह मान गया और भूतदत्त
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