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तीर्थकर चरित्र-भा. ३
गोशालक की कुपात्रता __ गोशालक, श्रमण तो बना, परन्तु उसकी चंचलतापूर्ण कुपात्रता नहीं मिटी । ब्राह्मण गाँव में मार खाने के पश्चात् भगवान् पत्रकाल गाँव पधारे और एक शून्य गृह में कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गए। वहाँ भी स्कन्दक और दंतीला की जोड़ी उस शून्य गृह में व्यभिचार रत हुई और गोशालक के हँसने पर उसकी पिटाई भी हो गई।
- वहाँ से चल कर भगवान् कुमार ग्राम पधारे और चम्पकरमणीय उद्यान में प्रतिमा धारण किये रहे । उस ग्राम में कूपन नामक कुंभकार रहता था। वह धनधान्य से परिपूर्ण एवं समृद्ध था । मदिरापान के व्यसन में वह डूबा रहता था। एक बार उसकी शाला में भ० पार्श्वनाथजी के शिष्यानुशिष्य मुनिचन्द्राचार्य अपने अनेक शिष्यों के साथ पधारे । वे अपने शिष्य वर्धन नामक बहुश्रुत को गच्छ का भार प्रदान कर, जिनकल्प ग्रहण करने की तैयारी कर रहे थे। तप, सत्व, श्रुत, एकत्व और बल-इन पाँच प्रकार की योग्यता से अपनी तुलना करने के लिये समाधिपूर्वक प्रयत्नशील थे।
___ गोशालक ने भगवान् से कहा-" मध्यान्ह का समय हो गया है । अब भिक्षा के लिये चलना चाहिये।"
. भगवान् तो मौन रहे, परन्तु भगवान् की ओर से भगवान् की भाषा में सिद्धार्थ व्यन्तर ने कहा-"आज मेरे उपवास है।"
गोशालक क्षुधातुर था । वह भिक्षा के लिए गाँव में गया। गांव में विचित्र प्रकार के वस्त्र-पात्र धारण करने वाले भ० पार्श्वनाथ की परम्परा के पूर्वोक्त साधुओं को उसने देखा, तो उसे आश्चर्य हुआ। क्योंकि वह वस्त्र-पात्र रहित भ० महावीर प्रभु को ही जानता था और भगवान् एकाकी ही विचर रहे थे । गोशालक ने उन साधुओं से पूछा"तुम कौन हो और किस मत के साधु हो ?" मुनियों ने कहा-"हम भगवान् पार्श्वनाथ के निग्रंथ हैं ।"
"अरे, तुम निग्रंथ नहीं हो, निग्रंथ तो मेरे धर्मगुरु हैं, जो न तो वस्त्र रखते हैं, न पात्र ही । तुम तो कोई ढोंगी दिखाई देते हो"-गोशालक ने आक्षेपपूर्वक कहा।
- वे साधु श्रमण भगवान् महावीर प्रभु को नहीं जानते थे, इसलिये गोशलक की बात सुन कर बोले
"जैसा तू अपने-आपको निग्रंथ बता रहा है, वैसा ही तेरा गुरु भी बिना गुरु के स्वच्छन्द साधु बना हुआ होगा।"
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