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________________ गोशालक का परिवर्तन १७१ ठोबड़े में रही हुई खीर खा ली, परन्तु गोशालक ताकता ही रह गया। इस घटना से भी उसके नियतिवाद को पुष्टि मिली। भगवान् ब्राह्मण ग्राम में पधारे । इस गांव के दो विभाग थे । एक का स्वामी नन्द और दूसरे का उपनन्द था। प्रभु के बेले की तपस्या का पारणा था। वे नन्द के घर गोचरी के लिये पधारे। नन्द ने भगवान् को दहीयुक्त कर का भोजन प्रदान किया। गोशालक दूसरे विभाग के स्वामी उपनन्द के घर गया। उपनन्द की दासी ने गोशालक को बासी चावल दिये। ये उसे अरुचिकर लगे। इससे उसने उपनन्द को अपशब्द कहे । उप. नन्द क्रोधित हुआ और दासी से कहा-“ये चावल इस दुष्ट के मस्तक पर पटक दे।" दासी ने वैसा ही किया। इससे गोशालक विशेष क्रुद्ध हुआ और शाप दिया कि"मेरे गुरु के तप-तेज से उपनन्द का घर जल कर भस्म हो जाय।" निकट रहे हुए व्यन्तरों ने सोचा-"भगवान् का नाम ले कर दिया हुआ शाप भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिये।" उन्होंने आग लगा दी और उपनन्द का घर जला दिया। ब्राह्मण गाँव से भगवान् चम्पा नगरी पधारे और तीसरा चातुर्मास वहीं किया। वहाँ प्रभु ने दोमासिक दो तप किये और उत्कटुक आदि विविध प्रकार के आसनयुक्त ध्यान करते रहे । प्रथम द्विमासिक तप का पारणा तो प्रभु ने चम्पा नगरी में ही किया और दूसरे का चम्पा के बाहर । चम्पा से चल कर भगवान् कोल्लाक ग्राम पधारे और एक शून्य-गृह में रात को प्रतिमा धारण कर के रहे । इस ग्राम के अधिकारी के सिंह नामक युवक पुत्र था । विद्युन्मति दासी के साथ उसका अवैध सम्बन्ध था । वे दोनों रति क्रीड़ा करने इस शून्यगृह में आये । युवक ने उस अन्धेरे घर में घुसते हुए कहा-“यहाँ कोई मनुष्य तो नहीं है ?" भगवान् तो ध्यानस्थ थे। परन्तु गोशालक यों हो दुबका हुआ द्वार के पीछे ही बैठा था। वह चाह कर नहीं बोला । सर्वथा एकान्त जान कर कामी-युगल क्रीड़ारत हुआ। जब वे वहाँ से निकल कर जाने लगे, तो गोशालक ने दासी का हाथ स्पर्श कर लिया । दासी चिल्लाई। युवक ने गोशालक को खूब पीटा । मार खा कर गोशालक ने भगवान् से कहा-- "भगवन् ! आप मेरे गुरु हैं और मैं आपका शिष्य हूँ। मुझ पर मार पड़ती रहे और आप चुपचाप देखते रहें । यह अनुचित नहीं है क्या ?" सिद्धार्थ व्यन्तर वहीं था । उसने कहा-'तेरी चञ्चलता और दुर्वृत्ति से ही तुझ पर मार पड़ती है । यदि तू भी मेरे जैसा उत्तम आचार पालता होता, तो मार नहीं पड़ती।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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