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गोशालक मिलन
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विचार ही खोटा है । ले इन प्रभु के दर्शन के फलस्वरूप में तुझे इच्छित फल देता हूँ ।" इन्द्र ने पुष्प शास्त्री को इच्छित दान दिया और भगवान् को वन्दना - नमस्कार कर के चला गया ।
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१.६७
गोशालक मिलन
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'पंख' जाति का 'मं'खली' नामक पुरुष लोगों को चित्रफलक दिखा कर आजीविका चलाता था । एकबार वह अपनी गर्भवती पत्नी भद्रा को ले कर ' सरवण ' गाँव में आया । उस गाँव में गोबहुल' नामक ब्राह्मण रहता था । वह विद्वान भी था और धनवान् भी । उसके एक विशाल गोशाला थी । मंखली अपनी पत्नी के साथ उस गोशाला के एक भाग में ठहर गया और चित्र फलक दिखाता और प्राप्त भिक्षा से जीवन निर्वाह करता था । गर्भकाल पूर्ण होने पर भद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो सुन्दर था और पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण था । गोशाला में जन्म होने के कारण इस पुत्र का नाम 'गोशालक ' रखा गया । यौवनवय में स्वच्छन्दता-प्रिय गोशालक, पिता से पृथक् हो कर स्वतन्त्र रूप से चित्रफलक लेकर अपनी आजीविका चलाने लगा ।
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भगवान् महावीर प्रभु की प्रव्रज्या का यह दूसरा वर्ष था । वे मास-मासखमण तपस्या करते हुए वर्षावास बिताने राजगृह के बाहर नालन्दा में पधारे और तंतुवायशाला ( बुनकर शाला) के एक भाग में, यथायोग्य अवग्रह कर के रहे । वहाँ भी भगवान् मासखमण तप करने लगे । मंखलीपुत्र गोशालक भी चित्रफलक लिये ग्रामानुग्राम फिरता और वृत्ति उपार्जन करता हुआ वहीं आ पहुँचा और उसी तंतुवायशाला के एक भाग में अपना सामान रख कर टिक गया। वह राजगृह में चित्र फलक दिखा कर द्रव्योपार्जन करने लगा । भगवान् उस वर्षावास के प्रथम मासखमण का पारणे का दिन था । भगवान् तंतुवायशाला से निकल कर राज ह में पधारे और विजय गाथापति के घर में प्रवेश किया । विजय सेठ भगवान् के आगमन से अत्यंत प्रसन्न हुआ और भक्तिपूर्वक वन्दन - नमस्कार कर
आहार- पानी से प्रतिलाभित किया। उसका हर्ष हृदय में समाता नहीं था । भगवान् को प्रतिलाभत करने के पूर्व प्रतिलाभित करते समय और बाद में भी उसकी प्रसन्नता बढ़ती रही । वह भगवान् का अपने घर में पदार्पण को भी अपना अहोभाग्य मान रहा था और आहारादि ग्रहण से तो वह इतना प्रसन्न हुआ कि जैसे उसे कोई बड़ा भारी लाभ हुआ हो और आहारदान के पश्चात् उसकी अनुमोदना से अपने हृदय को पवित्र कर रहा था ।
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