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________________ तीर्थंकर चरित्र-भाग ३ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक मृत्यु पा कर नागकुमार जाति में देव हुए। प्रभु के निमित्त से सामुद्रिक शास्त्रवेत्ता को श्रम विहार करते हुए बारीक रेत और धूल पर प्रभु के चरण अंकित हो गए। उधर से 'पुष्प' नामक एक सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञाता निकला । भगवान् के चरण-चिन्ह और उस में अंकित लक्षण देख कर उसने सोचा कि “इस मार्ग पर कोई चक्रवर्ती सम्राट निकले हैं । परन्तु वे अकेले हैं । लगता है कि अब तक उन्हें राज्य की प्राप्ति नहीं हुई, अथवा राज्यच्युत हो गये हैं । मैं उनसे मिलूं । वे अभी ही इधर से गये हैं। ऐसे महापुरुष की संकट के समय सेवा करना अत्यंत लाभदायक होता है । उन्हें भी सेवक की आवश्यकता होगी ही। मुझे पुण्योदय से ही यह सुयोग मिला है।" इस प्रकार सोच कर वह चरण-चिन्हों के सहारे शीघ्रता से आगे बढ़ा । भगवान् स्थूणाक ग्राम के बाहर अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ रहे थे। पुष्प, प्रभु के निकट पहुँचा। उसने देखा कि प्रभु के वक्षस्थल पर श्रीवत्स अंकित था, मस्तक पर मुकुट का चिन्ह, दोनों भुजाओं पर चक्रादि दिखाई दे रहे थे। भजाएँ घुटने तक लम्बी, नाग के समान थी और नाभिमंड दक्षिणवर्त युक्त गम्भीर और विस्तीर्ण था। भगवान के शरीर पर ऐसे लोकोत्तम चिन्ह देख कर उसे विस्मय हुआ। "ऐसे लोकोत्तम लक्षणों से युक्त होते हुए भी यह तो भिक्षुक है । एक भिखारी के ऐसे उत्तमोत्तम लक्षण ? यह तो प्रत्यक्ष ही मेरे विद्या अध्ययन श्रम और शास्त्र के लिये चुनौती है। इस झूठी विद्या पर विश्वास कर के मैने भूल ही की । मेरा वर्षों का श्रम व्यर्थ ही गया। ऐसे शास्त्र के रचयिता धूर्त ही थे।" वह निराशापूर्ण चिन्ता-मग्न हो गया। उधर प्रथम स्वर्ग का अधिपति शक्रेन्द्र का ध्यान भगवान् की ओर गया। उसने भगवान् को अपने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा । भगवान् के माथ उस चिन्ता-मग्न पुष्प को भी देखा । उसकी उपस्थिति का कारण जाना। इन्द्र त्वरित भांगन के निकट आया ओर वन्दना नमस्कार किया । इन्द्र को वंदना करते देख कर भावष्यवेत्ता चकित हुआ । इन्द्र ने उससे कहा-- मर्च ! तेरा अध्ययन अधूरा है। क्या उत्तमोत्तम लक्षण भौतिक राज्याधिपति के ही होते हैं ? धर्माधिपति-धर्मचक्रवर्ती के नहीं होते ? ये नरेन्द्रों और देवेन्द्रों के भी पूज्य तीर्थकर भगवान् हैं । इन्होंने राज्य-भोग की भी इच्छा नहीं की । शास्त्र खोटा नहीं, ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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