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देवानन्दा को शोक x x त्रिशला को हर्ष
अशुभ पुद्गलों को हटाया। फिर शुभ पुद्गलों का प्रवेश करके भगवान् को स्थापित किया। इसके बाद त्रिशलादेवी के गर्भ को ले कर देवानन्दा की कुक्षि में रखा । इस प्रकार अपना कार्य पूर्ण करके देव स्वस्थान लौट गया।
देवभव का अवधिज्ञान भगवान को गर्भ में भी साथ था। देवलोक से च्यवन होने के पूर्व भी भगवान् जानते थे कि मेरा यहाँ का आयु पूर्ण हो कर मनुष्य-भव प्राप्त होने वाला है । देवानन्दा के गर्भ में आने के तत्काल बाद भगवान् जान गये कि मेरा देवलोक से च्यवन हो कर मनुष्य-गति में-गर्भ में आगमन हो चुका है। किंतु च्यवन होते समय को भगवान् नहीं जानते थे। क्योंकि वह सूक्ष्मतम समय होता है, जो छद्मस्थ के लिये अज्ञेय है । गर्भसंहरण के पूर्व भी भगवान् जानते कि मेरा यहां से संहरण होगा, संहरण होते समय भी जानते थे और संहरण हो चुका-यह भी जानते थे।
देवानन्दा को शोक + + त्रिशला को हर्ष
देवानन्दा के गर्भ से प्रभु का साहरण हुआ तब देवानन्दाजी को स्वप्न आया कि उनके चौदह महान् स्वप्नों का महारानी त्रिशलादेवी ने हरण कर लिया है। वह घबरा कर उठ बैठी और रुदन करने लगी। उसके शोक का पार नहीं रहा। उसकी अलौकिक निधि उससे छिन ली गई थी। दूसरी ओर वे चौदह महास्वप्न महारानी त्रिशलादेवी ने देखे । उनके हर्ष का पार नहीं रहा। महारानी उठी और स्वाभाविक गति से चल कर पतिदेव महाराज सिद्धार्थ नरेश के शयन कक्ष में आई । उन्होंने अपने मधुर कोमल एवं कर्णप्रिय स्वर एवं मांगलिक शब्दों के उच्चारण से पतिदेव को निद्रामुक्त किया। निद्रा खुलने पर नरेश ने महारानी को देखा, तो सर्व-प्रथम उन्हें एक भव्य सिंहासन पर बिठाया और स्वास्थ्य एवं आरोग्यता पूछ कर, इस समय आगमन का कारण जानना चाहा। महारानी ने महान स्वप्न आने का वर्णन सुनाया । ज्यों-ज्यों महारानी स्वप्न का वर्णन करने लगी, त्यों-त्यों महाराजा का हर्ष बढ़ने लगा। सभी स्वप्न सुन कर महाराजा ने कहा;
"देवानुप्रिये ! तुमने कल्याणकारी, मंगलकारी, महान् उदार स्वप्न देखे हैं । इनके फल स्वरूप हमें अर्थलाभ, भोगलाभ, सुखलाभ, राज्यलाभ, यशलाभ के साथ एक महान् पुत्र का लाभ होगा। वह पुत्र अपने कुल का दीपक, कुलतिलक, कुल में ध्वजा के समान, कुल की कीर्ति बढ़ाने वाला, यशस्वी एवं सभी प्रकार से कुलशेखर होगा। वह शुभ लक्षण व्यंजन और शुभ चिन्हों से युक्त सर्वांग सुन्दर, प्रियदर्शी होगा।"
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