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तीर्थंकर चरित्र - भाग ३
देवेन्द्र शक्र का आसन कम्पायमान हुआ । उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर जाना कि चरम तीर्थंकर भगवान् देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आये हैं । उन्हें ८२ रात्रि व्यतीत हो गई है। उन्होंने सिंहासन से नीचे उतर कर भगवान् को नमस्कार किया। इसके बाद उन्हें विचार हुआ कि - " तीर्थंकर भगवान् का जन्म उदारता, शौर्य्यता एवं दायकमाव आदि गुणों युक्त ऐसे क्षत्रिय कुल में ही होता है, याचक कुल में नहीं होता । ब्राह्मण कुल याचक होता है । दान लेने के लिये हाथ फैलाता है। उसमें शौर्य्यता, साहसिकता भी प्रायः नहीं होती । कर्म-प्रभाव विचित्र होता है । मरीचि के भव में किये हुए कुल मद से . बन्धा हुआ कर्म अब उदय में आया है । उसीका परिणाम है कि भगवान् को याचक- कुल में आना पड़ा । कर्म-फल भुगत चुका है । अब मेरा कर्त्तव्य है कि -- भगवान् के गर्भपिण्ड का संहरण कर के किसी योग्य माता की कुक्षि में स्थापन करूँ ।" यह मेरा कर्त्तव्य है-जीताचार है । शक्रेन्द्र ने ज्ञानोपयोग से क्षत्रिय नरेशों के उच्च कुल, उत्तम शील, न्याय-नीति, यश, प्रतिष्ठादि उत्तम गुणों से भरपूर माता-पिता की खोज की। उनकी दृष्टि क्षत्रियकुंड नगर के अधिपति सिद्धार्थ नरेश पर केन्द्रित हो गई । वे सभी उत्तम गुणों से युक्त I उनकी रानी त्रिशला देवी भी गुणों की भंडार सुलक्षणी तथा साक्षात् लक्ष्मी के समान उत्तम महिला - रत्न थी । देवेन्द्र को यही स्थान सर्वोत्तम लगा | महारानी त्रिशलादेवी भी उस समय गर्भवती थी । शक्रेन्द्र ने अपने सेनापति हरिनैगमेषी देव को आदेश दिया-'तुम भरत क्षेत्र के ब्राह्मणकुंड ग्राम के ऋषभदत्त ब्राह्मण के घर जाओ और उसकी पत्नी देवानन्दा के गर्भ को यतनापूर्वक संहरण कर के क्षत्रियकुंड की महारानी त्रिशला की कुक्षि में स्थापित करो और उसके गर्भ को देवानन्दा की कुक्षि में रखो ।"
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इन्द्र का आदेश पा कर हरिनैगमेषी देव अति प्रसन्न हुआ । उसे भावी जिनेश्वर भगवंत रूपी अलौकिक आत्मा की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था । देवलोक से व्यव कर देवानन्दा के गर्भ में आये उन्हें बयासी रात्रि-दिन व्यतीत हो चुके थे और तियासी रात्रि वर्तमान थी। आश्विनकृष्णा त्रयोदशी को हस्तोत्तरा ( उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र का योग था । हरिनैगमेषी देव उत्त-वैक्रिय कर के ब्राह्मणकुंड ग्राम आया । गर्भस्थ भगवान् को नमस्कार किया तथा देवानन्दा और परिवार को अवस्वापिनी निद्रा में लीन किया । फिर गर्भस्थान के अशुभ पुद्गलों को पृथक् किया और शुभ पुद्गलों को प्रक्षिप्त किया । इसके बाद भगवान् से बोला--" आपकी आज्ञा हो भगवन् !” उनको किसी प्रकार की पीड़ा नहीं हो, इस प्रकार भगवान् को अपने हाथों में ग्रहण किया और क्षत्रियकुण्ड के राजभवन में आया । उसने महारानी त्रिशलादेवी को भी निद्राधीन करके उनके गर्भ और
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