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________________ चक्रवर्ती पद + PPTPFFFFFFF Jain Education International १२७ नित्य विषयासक्त, राज्यमूर्च्छा में लीनतम, बाहुबल के गर्व से जगत् को तृणवत् तुच्छ गिनने वाले, हिंसा में निःशंक, महान् आरम्भ और महापरिग्रह तथा क्रूर अध्यवसाय से सम्यक्त्व रूप रत्न का नाश करने वाले वासुदेव, नारकी का आयु बाँध कर और ८४००००० वर्ष का आयु पूर्ण कर के सातवीं नरक में गया। वहाँ वे तेतीस सागरोपम काल तक महान् दुःखों को भोगते रहेंगे। प्रथम वासुदेव ने कुमारवय में २५००० वर्ष, मांडलिक राजा के रूप में २५००० वर्ष दिग्विजय में एक हजार वर्ष और वासुदेव ( सार्वभौम नरेन्द्र ) के रूप में ८३४९००० वर्ष, इस प्रकार कुल आयु चौरासी लाख वर्ष का भोगा । ချောရ अपने छोटे भाई की मृत्यु होने से अचल बलदेव को भारी शोक हुआ। वे विक्षिप्त के समान हो गए । उच्च स्वर से रोते हुए वे भाई को जिस प्रकार नींद से जगाते हो, झंझोड़ कर सावधान करने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगे । इस प्रकार करते-करते वे मूच्छित हो गए । मूर्च्छा हटने पर वृद्धों के उपदेश से उनका मोह कम हुआ । वासुदेव की मृत देह का अग्नि संस्कार किया गया । किन्तु बलदेव को भाई के बिना नहीं सुहाता । वे घर-बाहर इधर-उधर भटकने लगे । अंत में धर्मघोष आचार्य के उपदेश से विरक्त हो कर दीक्षित हुए और विशुद्ध रीति से संयम का पालन करते हुए, केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त किया और आयु पूर्ण होने पर मोक्ष प्राप्त कर लिया। उनकी कुल आयु ८५००००० वर्ष की थी । त्रिपृष्ठ वासुदेव ( मरीचि का जीव ) किसी पूर्वभव में सातवीं नरक का आयु पूर्ण कर के केशरीसिंह हुआ। वह मृत्यु पा कर चौथी नरक में गया । इस प्रकार तिथंच और मनुष्य आदि गतियों में भटकता और दुःख भोगता हुआ जन्म-मरण करता रहा । चक्रवर्ती पद शुभकर्मों का उपार्जन कर के मरीचि का जीव पूर्व महाविदेह की मूका नगरी में धनंजय राजा की धारिणी रानी की कुक्षि में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । माता ने चौदह सपने देखे | जन्म होने पर वालक का नाम 'प्रियमित्र' दिया। योग्य वय में धनंजय राजा ने पुत्र को राज्य का भार दे कर दीक्षा ली । प्रियमित्र नरेश के यहाँ चौदह महारत्न उत्पन्न हुए । छह खंड साथ कर वह न्याय नीति पूर्वक राज्य का संचालन करने लगा । कालान्तर में मूका नगरी के बाहर उद्यान में पोट्टिल नाम के आचार्य पधारे । महाराजा प्रियमित्र वन्दव करने गये । धर्मोपदेश सुन कर संसार से विरक्त हुए और पुत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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