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________________ त्रिपृष्ट वासुदेव भव parकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक की उदर से, मरीचि का जीव (जो प्रथम चक्रवर्ती महाराजा भरतेश्वर का पुत्र था और भगवान् आदिनाथ के पास से निकल कर पृथक पंथ चला रहा था) पुत्रपने उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'विश्वभूति' रखा गया । वह सभी कलाओं में प्रवीण हुआ। यौवनक्य आने पर अनेक सुन्दर कुमारियों के साथ उसका लग्न किया गया। वहाँ 'पुष्पक रंडक' नाम का उद्यान बड़ा सुन्दर और रमणीय था। उस नगरी में सर्वोत्तम उद्यान यही था। राजकुमार विश्वभूति अपनी स्त्रियों के साथ उसी उद्यान में रह कर विषय-मुख में लीन रहने लगा। एक वार महाराज विश्वनन्दी के पुत्र राजकुमार दिशाखनन्दी के मन में, इस पुष्पकरंडक उद्यान में अपनी रानियों के साथ रह कर क्रीड़ा करने की इच्छा हुई । किंतु उस उद्यान में तो पहले से ही विश्वभूति जमा हुआ था। इसलिए विशाखनन्दी वहाँ जा ही नहीं सकता था। वह मन मार कर रह गया। एक बार महारानी की दासियां उस उद्यान में फूल लेने गई । उन्होंने विश्वभूति और उसकी रानियों को उन्मुक्त क्रीड़ा करते देखा । उनके मन में डाह उत्पन्न हुई । उन्होंने महारानी से कहा-- "महारानीजी ! इस समय वास्तविक राजकुमार तो मात्र विश्वभूति ही है। वही सर्वोत्तम ऐसे पुष्पकरण्डक उद्यान का उपभोग कर रहा है और अपने राजकुमार तो उससे वंचित रह कर साधारण स्थान पर रहते हैं । यह हमें तो बहुत बुरा लगता है। महाराजाधिराज एवं राजमहिषी का पाटवी कुमार, साधारण ढंग से रहे और छोटा भाई का लड़का राजाधिराज के समान सुख-भोग करे, यह कितनी बुरी बात है ?" महारानी को बात लग गई। उसके मन में भी द्वेष की चिनगारी पैठ गई और सुलगने लगी। महाराज अन्तःपुर में आये। रानी को उदास देख कर पूछा । राजा ने रानी को समझाया-“प्रिये ! यह ऐसी बात नहीं है, जिससे मन मैला किया जाय । कुछ दिन विश्वभूति रह ले, फिर वह अपने आप वहां से हट कर भवन में आ जायगा और विशाखनन्दी वहां चला जायगा । छोटी-सी बात में कलह उत्पन्न करना उचित नहीं है।" किन्तु रानी को संतोष नहीं हुआ । अन्त में महाराजा ने रानी की मनोकामना पूर्ण करने का आश्वासन दिया, तब संतोष हुआ। राजा ने एक चाल चली । उसने युद्ध की तैयारियां प्रारम्भ की । सर्वत्र हलचल मच गई । यह समाचार विश्वभूति तक पहुँचा, तो वह तुरंत महाराज के पास आया और महाराज से युद्ध की तैयारियों का कारण पूछा । महाराजा ने कहा-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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