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________________ काली आयिका विराधक हो कर देवी हुई ८९ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर कर, धर्म-रथ पर आरूढ़ हो कर दासियों के साथ भगवान् की वन्दना करने गई । धर्मोपदेश सुना । वैराग्य प्राप्त कर दीक्षित हुई। महासती श्रीपुष्पचूलाजी की शिष्या हुई । ग्यारह अंग सूत्रों का ज्ञान अर्जित किया और विविध प्रकार का तप करती हुई विचरने लगी। ___ कालान्तर में वह काली आर्यिका 'शरीरबाकुशिका' हो गई । वह बार-बार हाथ, पाँव, मुख, स्तन आदि धोने लगी । जहाँ बैठती-सोती वहाँ जल का छिड़काव करती। उसकी इस प्रकार की चर्या देख कर गुरुणीजी महासती श्रीपुष्पचूलाजी ने कहा-- ___ "देवाणुप्रिया ! श्रमणी-निग्रंथियों को शरीरबकुशा नहीं होना चाहिये। तुम शरीरबकुशा हो गई हो। इस प्रवृत्ति को छोड़ो और आलोचना कर के प्रायश्चित्त से शुद्ध बनो।" काली आर्यिका ने गुरुणीजी का आदेश नहीं माना, तब पुष्पचूलाजी और अन्य साध्वियें काली आर्यिका की निन्दा करने लगी। अपनी निन्दा सुन कर काली आर्यिका को विचार हुआ कि--"जब मैं गृहस्थवास में थी, तब तो मैं स्वतन्त्र थी। अपनी इच्छानुसार करती थी। परन्तु दीक्षित होने के बाद मैं परवश हो गई। अब मुझे इन साध्वियों से पृथक् हो कर स्वाधीन हो जाना ही श्रेयस्कर है।" इस प्रकार सोच कर वह साध्वी-समूह से पृथक् हो कर रहने लगी और इच्छानुसार करने लगी। 'वह पावस्था पार्श्वस्थ विहारी' (ज्ञानादि युक्त नहीं, किंतु ज्ञानादि के पास--निकट रहने-विचरने लगी) अवसन्न, कुशील यथाच्छन्द एवं संसक्त हो कर विचरने लगी। इस प्रकार बहुत वर्षों तक रही। अन्त में अर्द्धमासिकी संलेख णा पूर्ण कर, शरीर वकुशताजन्य दोष की शुद्धि किये बिना ही आयु पूर्ण कर के भवनपति की चमरचंचा राजधानी में देवी के रूप में उत्पन्न हुई। वहां वह चार हजार सामानिक देव और अन्य अनेक देव-देवियों की स्वामिनी बनी । उसकी आयु ढाई पल्योपम की है । कालान्तर में यह कालीदेवी भगवान् महावीर प्रभु की वन्दनार्थ राजगृही के गुणशील उद्यान में आई और भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर नाटक किया और चली गई। श्री गौतमस्वामीजी के पूछने पर भगवान् ने उसका पूर्वभव और बाद के मनुष्य-भव में मुक्त होना बतलाया। इसी प्रकार कुमारी राजी, रजनी, विद्युत् और मेघा का चरित्र भी जानना चाहिय । श्रावस्ति नगरी की शुभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा और मदनाकुमारी भी इसी प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ से दीक्षित हो कर चारित्र की विराधना कर के बलिचंचा राजधानी में दे वाराणसी की इला, सतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा, घना और विद्युत् भी चारित्र की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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