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बन्धुदत्त का पूर्वभव और भव - मुक्ति का निर्णय
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सरदार और उसके साथियों ने बन्धुदत्त का उपदेश स्वीकार किया । धनदत्त और बन्धुदत्त को सरदार आदर सहित अपने घर लाया और भोजनादि से सत्कार किया । बन्धुदत्त के परिचय देने पर प्रियदर्शना अपने मामाससुर धनदत्त के चरणों में झुकी । इस अपूर्व आनन्द के निमित्त से धनदत्त ने उस बालक का नाम ' बान्धवानन्द' दिया । वहाँ आनन्द ही आनन्द छा गया । चण्डसेन ने बन्धुदत्त का लूटा हुआ सभी धन उसे दे दिया और अपनी ओर से भी बहुत दिया । बन्धुदत्त ने अपने साथ बन्दी बनाये हुए लोगों को योग्य दान दे कर बिदा किया और धनदत्त को भी आवश्यक धन दे कर अपने बन्दी कुटुम्बियों को छुड़ाने भेजा । फिर स्वयं पत्नी पुत्र और चण्डसेन को साथ ले कर अपने घर नागपुरी के लिये प्रस्थान किया। उसके बन्धुजनों नागरिकों और राजा ने उसका स्वागत किया और सम्मानपूर्वक नगर प्रवेश कराया । बन्धुदत्त ने सभी को अपने जीवन में बीती हुई अच्छी-बुरी घटना सुनाई। अन्त में उसने सभी जनों से कहा - " मैं सभी विपत्तियों से बच कर सुखपूर्वक घर आ पहुंचा। यह जिनधर्म की आराधना का फल है ।" चण्डसेन को कुछ दिन रोक कर प्रेमपूर्वक विदा किया ।
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बन्धुदत्त का पूर्वभव और भव-मुक्ति का निर्णय
बन्धुदत्त को प्रियदर्शना के साथ सुखोपभोग करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए । एकदा तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी का नागपुरी शुभागमन हुआ । बन्धुदत्त, पत्नी और पुत्र के साथ भगवान् को वन्दन करने गया । धर्मोपदेश सुना । बन्धुदत्त ने अपने अशुभोदय का कारण पूछा । प्रभु ने फरमाया-
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'तू पूर्वभवों में इसी भरत के विध्यादि में 'शिखासन' नामक भील जाति का राजा था | तू हिंसक एवं विषय था। यह प्रियदर्शना उस समय तेरी 'श्रीमती' नामकी रानी थी । तू उसके साथ पर्वत के कुंज में रह कर भोग भोग रहा था और पशुओं का शिकार भी करता था। एक बार कुछ साधु, मार्ग भूल कर अटवी में भटकते हुए तेरे कुंज के निकट आये। वे साधु भूख-प्यास से क्लांत, थकित और पीड़ित थे । तुझे उन पर दया आई | तू उन्हें फल ख ने को देने लगा, किन्तु सचित्त होने के कारण उन्होंने नहीं लिये, तब तुने उन्हें अचित्त सामग्री दी और उन्हें सान्तवना दे कर सीधा मार्ग बताया तथा कुछ दूर तक पहुँचाने गया । लौटते समय संघाचार्य ने तुझे धर्मोपदेश दिया और नमस्कार महामंत्र
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