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पवनंजय के साथ अंजनी के लग्न और उपेक्षा
दोनों मित्र वहाँ से लौट आये । पवनंजय को रातभर नींद नहीं आई । प्रातःकाल उसने मित्र से कहा-" बन्धु ! जो स्त्री अपने से विरक्त हो, वह देवांगना से भी अधिक सुन्दर हो, तो किस काम की ? वह अशांति और आपत्ति का ही कारण बनती है । इसलिए मुझे ऐसी स्त्री नहीं चाहिए। तुम पिताश्री से कह कर लग्न रुकवा दो ।"
" मित्र ! तुम्हारी बुद्धि में विकार आ गया है । अरे ! अपने दिये हुए वचन का भी सज्जन लोग पालन करते हैं, तब तुम्हारे पूज्य पिता के दिये हुए वचन का तुम उल्लंघन करना चाहते हो ? यह तुम्हारे जैसे सुपुत्र के लिए उचित है क्या ? गुरुजन यदि तुम्हें बेंच दे, या किसी को दे दें, तो भी सुपुत्र उसका पालन करता है, तो तुम अपने पिता का वचन कैसे तोड़ सकोगे ? तुम अंजनासुन्दरी में दोष देख रहे हो, यह तुम्हारा भ्रम है । तुम उसके शुभ आशय को समझे बिना ही दूषित मानने की भूल मत करो ". प्रहसित ने पवनंजय को शांत करते हुए कहा ।
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पवनंजय को मित्र की शिक्षा से संतोष तो नहीं हुआ, किंतु उसने लग्न करना स्वीकार कर लिया । निर्धारित समय पर दोनों के लग्न हो गए ।
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अंजनासुन्दरी के लिए श्वशूर ने सात खण्ड का भव्य भवन दिया और सभी प्रकार सुख-साधन प्रदान किये। किंतु पवनंजय उससे विमुख ही रहा । उसके मन में भ्रम से उत्पन्न रोष भरा हुआ था । इसलिए उसने अंजना के सामने देखा भी नहीं । पति की विमुखता के कारण अंजनासुन्दरी चिंतित रहने लगी । उसका खाना, पीना, सोना, बैठना आदि सभी क्रियाएँ उदासीनतापूर्वक होने लगी । उसके हृदय में से बार-बार निःश्वास निकलने लगा । उसकी रातें करवट बदलते एवं तड़पते हुए बीतने लगी । उसकी सखियाँ उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती हुई मीठी-मीठी बातें करती, किंतु अंजना तो प्रायः मौन ही रहती । इस प्रकार दुःख में काल निर्गमन करते २२ वर्ष बीत गए ।
राक्षसराज रावण का दूत, प्रहलाद नरेश के पास, युद्ध में सम्मिलित होने क निमन्त्रण ले कर आया। वरुण नाम का राजा, रावण की अवज्ञा करता था। वह उद्दंडतापूर्वक कहता कि - " रावण बहुत घमण्डी हो गया है । नलकूबर, सहस्रांशु, मरुत, यमराज और इन्द्र आदि अशक्त राजाओं पर विजय प्राप्त कर के उसका गर्व सीमातीत हो गया है । किंतु मेरे सामने उसका गर्व स्थिर नहीं रह सकेगा । यदि उसने लड़ने का साहस किया, तो उसका सारा घमण्ड चूर-चूर हो जायगा," आदि ।
वरुण के अपमानजनक वचन, रावण सहन नहीं कर सका । उसने वरुण पर चढ़ाई
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