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तीर्थकर चरित्र
देख सकेंगे"-मित्र ने उपाय बताया।
रात्रि के समय दोनों मित्र विद्या के बल से अदृश्य बन कर अंजनासुन्दरी के भवन में पहुँचे । उस समय वह अपनी सखियों के साथ बैठी थी। दोनों मित्र अदृश्य रह कर देखने लगे। अंजनासुन्दरी का अप्सरा के समान सौंदर्य देख कर पवनजय को प्रसन्नता हुई। वह प्रच्छन्न रह कर सखियों की बातें सुनने लगा । वसंतमाला, अंजनासुन्दरी से कहने लगी;
" सखी ! तू सद्भागनी है कि तुझे देव के समान उत्तम पति मिला है।"
"क्या धरा है पवनंजय में । वह विद्युत्प्रभ की समानता कर सकता है क्या"--- मिश्रिका नाम की दूसरी सखी बोली।
'विद्युत्प्रभ तो साधु होने वाला है और उसकी आयु भी थोड़ी है । इसलिए ऐसा वर किस काम का"--वसंतमाला ने कहा ।
"देव समागम तो थोड़ा भी उत्तम है । अमृत यदि थोड़ा भी मिले, तो समुद्रभर खारे पानी से तो श्रेष्ठ ही है"--मिश्रिका ने कहा।
पवनंजय मिश्रिका की कर्ण-कटु बात से क्रुद्ध हो उठा । अंजनासुन्दरी की मौन और तटस्थता से उसका आवेश विशेष भड़का । उसने सोचा--अंजना को विद्युतप्रभ प्रिय लगता है, इसलिए वह मेरी निन्दा सुन रही है। यदि इसके मन में मेरे लिए स्थान होता, तो यह मेरी निन्दा नहीं सुन सकती और तत्काल रोकती। क्रोधावेश में ही वह प्रकट हो गया और खड्ग निकाल कर बोला--
"जिसके मन में विद्युत्प्रभ के प्रति प्रेम है और जो उसकी प्रशंसक है, उन दोनों का पवनंजय का यह खड्ग स्वागत करेगा।"
इस प्रकार कहता हुआ वह आगे बढ़ता ही था कि उसके मित्र प्रहसित ने हाथ पकड़ कर रोक लिया और समझाने लगा;--
__“मित्र ! शांत बनो। तुम जानते हो कि स्त्री का अपराध हो, तो भी वह गाय के समान अवध्य है, फिर क्रोध क्यों करते हो ? और अंजनासुन्दरी तो सर्वथा निरपराधिनी है । वह केवल लज्जा के वश हो कर ही चुप रही होगी। उसे अपराधिनी मान लेना अन्याय है।"
* अन्य चरित्रकार लिखते हैं कि--वसंतमाला की बात सुन कर अजनासुन्दरी ने विद्युत्प्रभ को बालब्रह्मचारी त्यागी निग्रंय एवं मक्त होने वाला जान कर धन्यवाद देते हए भक्ति बतलाई । वह स्वयं धर्म के रंग में रंगी हुई थी। अंजना को विद्यत्प्रभ के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति व्यक्त करते देख कर पवनंजय के मन में भ्रम उत्पन्न हुआ और वह क्रुद्ध हो गया।
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