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________________ पाण्डवों की मुक्ति ६६५ काययययनक कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर एक मास के तप सहित संलेखना पूर्वक काल कर के ब्रह्मलोक में देवपने उत्पन्न हुई। वहाँ का दस सागर का आयु पूर्ण कर के वह द्रुपद देव महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य-भव प्राप्त करेगा और संयम पाल कर सिद्ध होगा। दीक्षित होने के बाद पांचों पाण्डव मुनियों ने संयम-साधना के साथ चौदह पूर्व का अध्ययन किया और विविध प्रकार का तप करने लगे। एकबार पाण्डव-मुनियों ने सुना कि भगवान् अरिष्टनेमिजी सौराष्ट्र जनपद में बिचर रहे हैं, तो उन्होंने आपस में विचारविमर्श किया और गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर भगवान् की वन्दना करने के लिये सौराष्ट्र की ओर विहार कर दिया और मासखमण तप करते हुए विचरने लगे । ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे हसतिकल्प नगर के बाहर सहस्राम्र वन उद्यान में (जहाँ से उज्जयंतगिरि बारह योजन दूर था) आ कर ठहरे । इनके मासखमण के पारणे का दिन था, इसलिये तपस्वी माहमनि यधिष्ठिरजी की आज्ञा ले कर चारों महात्मा, पारणे के लिये आहार लेने को नगर में आये और आहार-पानी लिया। इसके बाद उन्होंने लोगों से सुना कि-" भगवान् अरिष्नेमिजी, उज्जयंतगिरि पर पांच सौ छत्तीस मुनियों के साथ सिद्धगति को प्राप्त हुए।" वे चारों मुनि, महात्मा युधिष्ठिरजी के पास आये और भगवान् अरिष्टनेमिजी के सिद्ध होने की बात कही, तब पांचों मुनियों ने परस्पर विचार किया-"अब हमें यह लाया हुआ आहार एकान्त निर्दोष स्थान में परठ देना चाहिये और शत्रुजय पर्वत पर जा कर अन्तिम संथारासंलेखना करनी चाहिए। उन्होंने आहार परठ दिया और शत्रुजय पर्वत पर चढ़ कर संथारा कर लिया। दो महीने का अनशन और बहुत वर्षों तक संयम पाल कर पांचों मुनिराज मुक्त हो गए। भगवान् अरिष्टनेमिजी तीन सौ वर्ष कुमारवास में रहे और सात सौ वर्ष संयम पाल कर सिद्ध हुए । भगवान् के वरदत्त आदि १८ गणधर हुए । १८००० साधु, ४०००० साध्वियें, ४०० चौदह पूर्वधर, १५०० अवधिज्ञानी, १५०० वैक्रिय-लब्धिधारी, १५०० केवलज्ञानी, १००० मनःपर्ययज्ञानी, ८०० वाद-लब्धिधारक, १६६००० श्रावक तथा ३३६००० श्राविकाएँ हुई। ॥ भ0 अरिष्टनेमिजी का चरित्र पूर्ण हुआ ।। जतीर्थकर चरित्र भाग २ समाप्त) - * जैनधर्म का मौसिक इतिहास पृ. २३८ में ५३५ मुनियों के साथ मुक्त होना लिखा है, "रन्तु ज्ञाता सूत्र में और त्रि. श. पु. च. में ५३६ का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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