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तीर्थङ्कर चरित्र कककककककककककककककककककककककककककककककककककका
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एवं भोजनादि तथा मद्यपान का परामर्श दिया। इस उपचार से शैलक अनगार का रोग शान्त हो गया । शनैः शनैः उनमें शक्ति बढ़ने लगी। थोड़े ही दिनों में वे हृष्ट पुष्ट एवं बलवान् हो गए । उनका रोग पूर्ण रूप से मिट गया ।
- रोग मिट जाने और शरीर सबल हो जाने पर भी उनका खान-पान वैसा ही चलता रहा । वे उत्तम भोजन-पान मुखवास और मद्यपान में अत्यन्त आसक्त हो गए। उन्होंने साधना भूला दी और शिथिलाचारी बन गए। उनमें कुशीलियापन आ गया। उनमें नियमानुसार जनपद-विहार करने की रुचि ही नहीं रही।
शलकजी को पार्श्वस्थ, कुशीलिया और लुब्ध देख कर, एक दिन पंथक मुनि को छोड़ कर, शेष मुनियों ने रात्रि के समय एकत्रित हो कर विचार किया;
“राजर्षि ने राज-पाट, भोग-विलास छोड़ कर संयम स्वीकार किया, किंतु अब वे खान-पानादि में गृद्ध हो कर सुखशील हो गये हैं । निग्रंथाचार छोड़ कर पार्श्वस्थ अवसन्न एवं कुशील बन गए हैं । श्रमण-निर्गयों को प्रमाद में लीन रहना अकल्प्य-अनाचार है। किन्तु उनको संयम में रुचि नहीं है । इसलिए पंचक मुनि को शैलक मुनि की वैयावृत्य के लिये छोड कर और शैलक अनगार से पूछ कर, अपन सब को जनपद-विहार करना उचित है।"
इस प्रकार विचार कर के उन्होंने शलक राजर्षि को पूछा और पंथक मुनि को उनको वैधावृत्य के लिए वहीं रख कर, शेष सभी मुनियों ने विहार कर दिया । शलकजी का शिथिलाचार चलता रहा। पंथ कजी की साधना भी चलती रही और शैलकजी की वैयावृय भी होती रही।
ग्रीष्म हाल ही नहीं, वर्षा के चार पट्टीने भी दीत गए । कार्तिक चौमासी पूर्ण हो रही थी। शेरकजी ने उस दिन अच्छा स्वादिष्ट भोजन, पेट पर कर खाया और मद्यपान भी किया । फिर वे सायं काल ही सो गए और सुखपूर्वक नींद लेने लगे।
शैलक-राजर्षि का प्रत्यावर्तन
पंथ क मुनि ने देवसिक प्रतिक्रमण एवं कायोत्सर्ग कर के चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की इच्छा से अलक-राजर्षि को वन्दना करने के लिए मस्तक झुका कर उनके चरण का स्पर्श किया। चरण-स्पर्श से शैलक-राजर्षि चौके । उनकी नींद उचट गई । वे क्रोधित
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