SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 651
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकर चरित्र कृपाककलककन्याकचकचकचकमक्कककककककककककककककककककक चलनचलकमक्ककका उस समय 'शुक' नामक परिव्राजकाचार्य भी विचरते हुए उसी नगर में आ कर - अपने आश्रम में ठहरे । वे वेद-वेदांग के पारगामी थे। उनके साथ भी एक हजार शिष्य थे। वे आने सांख्य मत के अनुसार आत्म-साधना करते थे। उनका आगमन जान कर जनसमूह दर्शनार्थ आया, नगरश्रेष्ठी सुदर्शन भी आया । आचार्य शुकदेव ने उस परिषद् को अपना शूचि-मूल धर्म सुनाया। सुदर्शन श्रेष्ठी ने धर्मोपदेश सुन कर, शौच-मूल-धम ग्रहण किया और उन परिव्राज़कों का भोजन-वस्त्रादि प्रदान किया। कुछ काल पश्चात् परिबानका चाल शुक, सौगन्धिका नगरी से निकल कर अन्यत्र चले गए। ला मानुग्नाम विचरते हुए था वच्चापुत्र अनगार भी अपने मुनि-संघ के साथ मौग"न्धिका नमरी पधारे और मोलासोक उझान में ठहरे । नागरिक जन वन्दन करने आये। . सुदर्शन सेठ भी आया । धर्मोपदेश सुना । उपदेश सुनने के पश्चात् सुदर्शन ने पूछा- - "आपके धर्म का मूल क्या है ?" ..." सुदर्शन ! हमारे धर्म का मूल 'विनय' है । यह विनय-पूल धर्म दो प्रकार का है--१ अगार-विनय और २ अनगार-विनय । अगार-विनय में पांच अणुव्रत, सात शिक्षा. व्रत (तीन गुणव्रत सहित) और ग्यारह उपासक-प्रतिमाएं हैं। अनगार विनयमूल धम--पाँच महाव्रतों का पालन, रात्रि-भोजन का त्याग, क्रोध-मान. यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग, दस प्रकार के प्रत्याख्यान और बारह प्रकार की भिक्षु-प्रतिमाओं का पालन करना है। इन दो प्रकार के विनयमूल धर्म के परिपालन से जीव, क्रमशः आठ कर्मों को क्षय कर के लोकान पर प्रतिष्ठित होता है।" अपने धर्म का स्वरूप बतलाने के बाद थावच्चापुत्र अनगार ने पूछा; - .०४६" सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या है ?" "देवानुप्रिय ! हमारा शूचिमूल धर्म है । उसके दो भेद हैं-१ द्रव्य-शूचि-पानी और मिट्टी से शरीर उपकरणादि की शुद्धि करना इत्यादि और २ भाव-शुद्धि-द्रव्य और मन्त्र से होती है । दोनों प्रकार की शुद्धि कर के आत्मा को पवित्र करने वाला जोव, स्वर्ग को प्राप्त होता है।" सुदर्शन सेठ का उत्तर सुन कर महात्मा बावच्यापुबजी ने पूछा; ---- "सुदर्शन ! कोई पुरुष, रक्त से लिप्त वस्त्र को स्वच्छ करने के लिए स्क्त से ही धोए, तो क्या वह वस्त्र शुद्ध हो सकता है ?" "नहीं, शुद्ध नहीं हो सकता"- सुदर्शन ने कहा । "इसी प्रकार हे सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार क्रिया करने से आत्मा की शुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy