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तीर्थङ्कर चरित्र
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माता ने बहुमूल्य भेट ग्रहण की और अपने मित्र-ज्ञा तिजनों के साथ महाराजाधिराज के समीप उपस्थित हुई । भेट समर्पित कर के निवेदन करने लगी;--
" महाराज ! मेरा एकाकी पुत्र, भगवाम् नेमिनाथजी के समीप दीक्षित होना चाहता है । मैं उसका दीक्षा-महोत्सव भव्य समारोहपूर्वक करना चाहती हूँ। इस महोत्सव के लिए मुझे छत्र, चामर और मुकुट प्रदान करें। इसी अभिलाषा से मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हैं।"
"देवानुप्रिये ! तुम निश्चित रहो । मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र का निष्क्रमण महोत्सव करूँगा। तुम जाओ। मैं स्वयं अभी तुम्हारे पुत्र के समीप आ रहा हूँ"--श्रीकृष्ण ने कहा।
श्रीकृष्ण गजारूढ़ हो कर थावच्चा के भवन पधारे। उन्होंने विरक्तात्मा थावच्चापुत्र से कहा ;--
"देवानुप्रिय ! तुम संसार छोड़ कर दीक्षित मत बनो और मेरी भुजा की छाया में रह कर यथेच्छ भोग भोगते रहो । मैं तुम्हारा सभी प्रकार से रक्षण करूँगा। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध, घायु के अतिरिक्त तुम्हें कोई स्पर्श भी नहीं कर सकेगा । तुम प्रव्रज्या ग्रहण करने का विचार छोड़ कर सुखपूर्वक भोग भोगते रहो।"
___ "महाराज ! यदि आप शरीर पर आक्रमण कर के विद्रूप एवं विकृत करने वाले बुढ़ापे को रोक सकें, रोगातंक से बचा सकें और जीवन का अन्त करने वाली मृत्यु का निवारण कर के सुरक्षित रख सकें, तो मैं आपकी भुजा की छाया में रह कर भोग-जीवन व्यतीत करने के लिए रुक जाऊँ। बताइये आप मझे जरा.रोग और मत्य से बचा सकेंगे?"
--"वत्स ! जरा और मृत्यु का निवारण अशक्य है। बड़े-बड़े इन्द्र भी इसका निवारण नहीं कर सके । इनका निवारण तो जन्म की जड़ काटने रूप कर्म-क्षय करने से ही हो सकता है।"
--"महाराज ! मैं इसी साधना में तत्पर होना चाहता हूँ जिससे अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय से संचित कर्मों को क्षय किया जा सके।"
थावच्चापुत्र का दृढ़ वैराग्य जान कर श्रीकृष्णचन्द्रजी ने सेवकों को आज्ञा प्रदान की;
___ "तुम हाथी पर सवार हो कर नगरी के प्रत्येक मुख्य-मुख्य स्थानों, मार्गों, बाजारों और विथिकाओं में जा कर उद्घोषणा करो कि--
"थावच्चापुत्र संसार से विरक्त हो कर भगवान् नेमिनाथ के समीप प्रबजित होना
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