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प्रव्रज्या की ओर मोड़ने का प्रयास
६३३ နန်းနန်းနန်-နေ၀
န်းနေမှန်နန်းနန်းနန်းနေလို့
विवाह करने के विचार को त्याग दे।"
वीरक नाम का एक बुनकर, श्रीकृष्ण पर अत्यन्त भक्ति रखता था । उसे बुला कर पूछा -
“तूने जीवन में कोई साहस का काम किया है कभी ?" - “नहीं महाराज ! कभी कुछ भी साहस का काम नहीं किया।" -“यःद कर, तेने कुछ-न-कुछ साहस का कार्य अवश्य किया होगा।"
--" मैने एकबार बैर के वृक्ष पर बैठे हुए एक प्राणी को लक्ष्य कर पत्थर फेंका था, उससे वह मर गया था। एकबार शकट-पथ में बहते हुए पानी को बायां पाँव अड़ा कर रोक दिया था और एकबार एक घड़े में बहुत-सी मक्खियाँ एकत्रित हो गई थी, तो मैने अपने बायें हाथ से घड़े का मुंह बन्द कर के उन्हें भीतर ही बन्द कर दी थी। वे घड़े में ही गुनगुनाती-भिनभिनाती रही। मुझे तो ये ही काम अपने साहस के याद आते हैं महाराज!"
श्रीकृष्ण ने वीरक को घर भेज दिया और दूसरे दिन राज-सभा में अनेक राजाओं के सामने कहा;--
"वीरक बुनकर क्षत्रिय तो नहीं हैं, किन्तु उसका पराक्रम क्षत्रियोचित है । उसने बदरीफल पर बैठे हुए लाल फण वाले नाग को भू शस्त्र से मार डाला, चक्र-विदारित भूमि पर कलुषित जलयुक्त गंगा-प्रवाह को इस वीर ने अपने बायें पाँव से रोक दिया और घट-सागर में घोष करती हुई बड़ी सेना को इसने अपने बायें हाथ से रोक रखी । इस प्रकार के उत्कट पराक्रम वाला यह वीर कुर्विद वास्तव में योद्धा है। क्षत्रियोचित पराक्रमी होने के कारण यह वीरक मेरा जामाता होने के योग्य है। मैं इसे अपनी पुत्री दंगा।"
श्रीकृष्ण ने वीरक को बुला कर कहा--" मैं अपनी पुत्री केतुमंजरी के साथ तेरा ब्याह करना चाहता हूँ " वीरक अचंभित हो गया और अपने को सर्वथा अयोग्य बता कर कहा-"स्वामिन् ! मैं राजकुमारी के लिए सर्वथा अयोग्य हूँ। नहीं, नहीं, मैं राजकुमारी को ग्रहण करने का विचार ही नहीं कर सकता। स्वामिन् ! क्षमा करें मुझ दरिद्र को।"
श्रीकृष्ण ने भ्रकुटी चढ़ा कर आदेश दिया। उसे मानना ही पड़ा । उसी समय उसके साथ राजकुमारी का लग्न कर के बिदा कर दिया । राजकुमारी, उसकी माता और समस्त स्वजन-परिजन अचंभित थे। उनके हृदय इस लग्न को स्वीकार नहीं कर रहे थे, किन्तु श्रीकृष्ण के सामने बोल कर विरोध करने का साहस किसी में नहीं था।
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