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तीर्थङ्कर चरित्र
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के स्थान पर रखमर्दन नामक कोट की स्थापना कर के नगर बसाया। इसके बाद वे सेना सहित राजधानी में पहुंचे।
पाण्डव-बन्धु द्रौपदी सहित हस्तिनापुर आये और माता-पिता को प्रणाम करने के बाद बोले
"पिताजी ! हमसे एक भारी भूल हो गई और श्रीकृष्ण ने हमें निर्वासित कर दिया । अब हमें श्रीकृष्ण की राज्य सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं रहा । हमें जाना ही पड़ेगा, परन्तु जाएँगे कहाँ ? ऐसा कौन-साधू-भाग है, जहाँ श्रीकृष्ण का शासन नहीं हो।"
“पुत्रों ! तुमने बहुत बुरा काम किया तुम्हें कृष्ण-वासुदेव का अप्रिय नहीं होना था।"
वृद्ध पाण्डु नरेश ने कुन्तीदेवी से कहा--" प्रिये ! पुत्रों ने बहुत बड़ा अनर्थ कर डाला । धोकृष्ण ने उन्हें देश-निकाला दिया है । अब उनके लिये ठिकाना ही कहाँ रहा? अब तुम्ही द्वारिका जावो और श्रीकृष्ण से ही पूछो कि पाण्डव-बन्धु कहाँ जा कर रहें ।"
रानी कुन्तीदेवी द्वारिका गई और श्रीकृष्ण से पाण्डवों के बसने का स्थान पूछा ६ श्रीकृष्ण ने कहा
"जानी ! चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव 'अपूतिवचन' वाले होते हैं । उनके मुख से निकले हुए वचन्न व्यर्थ नहीं होते है इसलिए निर्वासन को आज्ञा अप्रभावित नहीं होगी। पांच पाण्डव दक्षिण की ओर समुद्र-तर पर जा कर ‘पाण्ड-मथुरा' नामक नगर बसा कर, मेरे बदृष्ट-सेक्क (मेरे समय नहीं जाते हुए सेवककत्) रहे।"
श्रीकृष्ण से सत्कार-सम्मान के साथ विदा की हुई कुन्तीदेवी हस्तिनापुर आई और श्रीकृष्ण का आदेश सुनाया। श्रीकृष्ण की आजा पा कर पाँचों पाण्डव अपने बल-वाहन हाथी-घोड़े आदि ले कर हस्तिनापुर से निकले और समुद्र-तट पर 'पाण्डु मधुरा' बसा कर सुखपूर्वक रहने लगे । कालान्तर में द्रौपदी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम 'पाण्डुसेन' रखा गया।
छह पुत्र सुलसा के या देवकी के ?
भहिलपुर नगर में 'नाम' नाम का बृहस्वामी रहता था । सुलसा उसकी पली
- इसके आगे त्रि.शा. पु. चा. में लिखा है कि श्री कृष्णा ने हस्तिनापुर का राज्य अपनी बहिन सुभद्रा के पुत्र अभिमन्या के पुत्र परीक्षित को दिया।
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