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________________ पद्मनाभ की पराजय और द्रौपदी का प्रत्यर्पण पाण्डव-भ्राता सेना सहित समुद्र तट पर पहुँचे । लवण-समुद्र की विशालता, उसमें जलमग्न रहे हुए पर्वत, परम-दाहक बड़वानल, एक ही चक्र में नष्ट कर देने वाले जलावर्त और भयंकर जल-जन्तुओं को देख कर दे हताश हो गए। पर्वताकार उठने वाले ज्वार-भाटा और दष्टि-पथ से भी अधिक विशाल--जिसमें तीर का कहीं पता नहीं, इतना विस्तृत जल विस्तार ने उन्हें चिन्ता-सागर में डुबा दिया । वे सोचने लगे, यह समुद्र मानव-शक्ति से अलंध्य है । इसे सुरक्षित रूप से पार करने का साहस ही कैसे हो सकता है। वे चिन्तामम्न थे कि श्रीकृष्ण आ पहुँचे । वहाँ पहुँच कर तेले का तप कर के बे समुद्र के अधिष्टाता सुस्थित देव का स्मरण करने लगे । तेला पूर्ण होने पर सुस्थित देव उनके समक्ष उपस्थित हुआ और बोला--" कहो, देवानप्रिय ! में आपका क्या हित करूं?" श्रीकृष्ण-वासुदेव ने कहा----"देव ! द्रौपदी देवी को अमरकंका से लाने के लिए हमें इस समुद्र को पार करना है । तुम मेरे और पाँच पण्डव के, इन छह रथों को इस समुद्र में मार्ग दो, जिससे हम अमरकंका पहुँच कर द्रौपदी को लावें।" देव बोला--“हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार पद्मनाभ के पूर्व का सम्बन्धी देव, द्रौपदी का हरण कर के अमरकंका ले गया, उसी प्रकार में द्रौपदी को वहाँ से उठा कर हस्तिनापुर पहुंचा दूं और यदि आप कहें तो दंड-स्वरूप पद्मनाभ, उसका परिवार और सेना आदि को इस समद्र में डबा द?" "नहीं, देव : तुम मुझे और पाँचों पाण्डव को अपने-अपने रथ सहित समुद्र में जाने का मार्ग दे दो । में स्वयं द्रौपदी को लाऊँगा।" -“ऐसा ही हो"--इस प्रकार कह कर छह रथों सहित उन्हें मार्ग दे दिया । श्रीकृष्ण और पांचों पाण्डव, स्थल-मार्ग के समान अपने-अपने रथ में बैठ कर समुद्र में चले और समुद्र पार कर अमरकंका राजधानी के उद्यान में पहुंचे । श्रीकृष्ण ने अपने दारुक नारथि को आज्ञा दी:-- “तुम पम नभ की राज-सभा में जाओ, उसके पादपीठ को ठुकराओ और भाले की नोक में लगा कर मेरा पत्र उसे दो तथा क्रोधपूर्वक भकुटी चढ़ा कर, लाल-लाल आँखें दिखाते हुए, प्रचण्डरूप से उसे कहो कि-- __“अरे ऐ पद्मनाभ ! कुकर्मी, कुलक्षणी, कृष्णपक्ष की हीन-चतुर्दशी का जन्मा मृत्यु का इच्छुक ! तूने श्रीकृष्ण-वसुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को उड़वा लिया ? हे अधम ! तुने द्रौपदी को ला कर अपनी मृत्यु का आव्हान किया है। यदि अब भी तू अपना जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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