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पद्मनाभ द्वारा द्रौपदी का हरण
नारदजी की बात ने पद्मनाभ के मन में द्रौपदी को प्राप्त करने की आकांक्षा उत्पन्न कर दी । वह द्रौपदी को प्राप्त करने की युक्ति सोचने लगा । उसे लगा कि भरतक्षेत्र जैसे अति दूर और विशाल लवण समुद्र को पार कर के द्रौपदो को लाना, मनुष्य की शक्ति से बाहर है । उसने अपने पूर्व के साथी देव की सहायता से मनोरथ पूरा करने का निश्चय किया। वह पौषधशाला में पहुँचा और तेला कर के अपने पूर्व-भव के सम्बन्धी देव+ का स्मरण करने लगा। साधना से आकृष्ट हो कर देव उपस्थित हुआ और स्मरण करने का कारण पूछा। पद्मनाभ ने कहा ;
" देवानुप्रिय ! भरत क्षेत्र की हस्तिनापुरी नगरी के पाण्डवों की रानी द्रौपदी, उत्कृष्ट रूप यौवन से सम्पन्न है । में उसका अभिलाषी हूँ और चाहता हूँ कि आप उसे यहाँ ले आवें । "
देव ने उपयोग लगाने के बाद कहा;
'मित्र ! तुम भूल कर रहे हो । द्रौपदी सती है । वह अपने पाँच पतियों के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के साथ भोग नहीं करेगी। उसे तुम या अन्य कोई भी पुरुष अनुकूल नहीं बना सकेगा । वह तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी -- यह निश्चय जानो । फिर भी मैं तुम्हारे स्नेह के कारण उसका अपहरण कर के अभी यहाँ ले आऊँगा ।"
देव उड़ा और लवण समुद्र और पर्वतादि लांघ कर हस्तिनापुर पहुँचा । उस समय द्रौपदी युधिष्ठिरजी के साथ अपने प्रासाद की छत पर सोई हुई थी। देव उस छत पर उतरा और द्रौपदी को अवस्वापिनी निद्रा ( अति गाढ़ निद्रा ) में निमग्न कर के उठाई और ले उड़ा तथा अमरकंका को अशोक वाटिका में रख दिया । इसके बाद उस पर से अवस्वापिनी निद्रा हटा कर पद्मनाभ के पास आया और बोला-
" मैं द्रौपदी को ले आया हूँ। वह तुम्हारी अशोक वाटिका में है । अब तुम्हारी तुम जानो । में जा रहा हूँ ।"
थोड़ी देर में द्वौपदी की निद्रा भंग हुई। वह आँख खोल कर इधर-उधर देखते ही चौंकी -- "अरे, मैं कहाँ हूँ ? यह भवन और अशोक वाटिका मेरी नहीं है । ये भवन किसके हैं ? यह उपवन किसका है ? कौन लाया मुझे यहाँ ? अवश्य ही किसी देव-दानव ने मेरा हरण किया और इस अशोक वाटिका में ला कर रख दिया । ओह ! किसी दुष्ट या वैरी ने मुझे विपत्ति में डाल दिया । अब में क्या करूँ ? हे भगवन् ! यह मेरे किन पापों क
+ त्रिशष्ठि श. पु. च. के अनुसार यह देव : पातालवासी " - भवन पति था ।
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