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नारद-लीला से द्रौपदी का हरण
महाभारत युद्ध में जरासंध और उसके पक्ष के कौरव आदि की पराजय एवं विनाश होने के बाद श्रीकृष्ण के प्रसाद से पाण्डवों का हस्तिनापुर का राज्य मिल गया। वे वहाँ राज्य का पालन करते हुए सुखपूर्वक रहते थे। एकबार नारदजी, भ्रमण करते हुए हस्तिनापुर आये । उस समय पाण्डु नरेश अपनी पत्नी कुंतीदेवी, युधिष्ठिरादि पांच पाण्डव, पुत्रवधु द्रौपदी और अन्तःपुर परिवार के साथ बैठे थे । नारद को आया देख कर द्रौपदी के अतिरिक्त सभी ने नारदजी का आदर-सत्कार किया, वन्दन-नमस्कार किया और उच्च आसन का आमन्त्रण दिया। नारदजी ने पहले जल छिड़का, फिर दर्भ बिछाया और उस पर आसन बिछा कर बैठ गए । पाण्डवादि नारदजी की सेवा करने लगे । किन्तु द्रौपदी ने नारदजी का आदर-सत्कार नहीं किया। उन्हें असंयत-अविरत-अप्रत्याख्यानी जान कर उनकी उपेक्षा कर दी। द्रौपदी के द्वारा हुई उपेक्षा एवं अनादर देख कर नारदजी क्षुब्ध हुए। उन्होंने सोचा--"द्रौपदी को अपने रूप-लावण्य, यौवन और पांच पाण्डवों के स्नेह-बन्धन का अभिमान है। इसीसे इसने मेरा अनादर किया है । इस गर्विणी को गर्व उतारना और अपने अनादर का दण्ड देना आवश्यक है।" वे हस्तिनापुर से चले। उन्होंने विचार किया--" भरत-क्षेत्र में तो ऐसा कोई शूरमा नहीं है जो श्रीकृष्ण के प्रभाव की उपेक्षा कर के द्रौपदी का अपहरण करे ।" उनकी दृष्टि धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व-दिशा की ओर भरत-क्षेत्र के दक्षिण भाग को अमरकंका राजधानी के पद्मनाभ राजा की ओर गई । वे आकाश में उड़ कर अमरकंका आए । राजा पद्मनाभ ने नारदजी का अच्छा सत्कार किया । अर्घ्य दे कर उच्चासन पर बिठाया। नारदजी ने पानी छिड़क कर दर्भ बिछाया और आसन बिछा कर बैठ गए। कुशल-पृच्छा की। पद्मनाभ ने नारदजी को अपना अन्तःपुर दिखाया और रानियों के सौंदर्य आदि की प्रशंसा करते हुए पूछा--
"महात्मन् ! मेरे ईस अन्तःपुर जैसा उच्चकोटि का अन्तःपुर आपने कभी किसी दूसरे का देखा है ?"
"अरे पद्मनाभ ! तुम कुएँ के मेंढक के समान हो । हस्तिनापुर के पाण्डवों की रांनी द्रौपदी के अलौकिक सौंदर्य के आगे तुम्हारा यह सारा अन्तःपुर कुछ भी नहीं है । उसके पाँव के अंगूठे की भी बराबरी नहीं कर सकता।"
___ इस प्रकार पद्मनाभ के मन में आकांक्षा उत्पन्न कर के नारदजी चल दिये। द्रौपदी से वैर लेने का निमित्त उन्होंने खड़ा कर दिया।
द्रौपदी के लग्न तक का वृत्तांत पृ. ४५७ तक भाया है।
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