________________
रथनेमि चलित हुए
६०३ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक
कर के शाश्वत स्थान प्राप्त कर लो।"
रथनेमि चलित हुए प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद महासती राजमतीजी, अन्य साध्वियों के साथ भगवान् अरिष्टनेमिजी को वन्दन करने के लिए रेवताचल पर्वत पर गई । पर्वत बढ़ते हुए अचानक वर्षा प्रारम्भ हो गई और साध्वियां पानी से भीगने लगी। अपने को वर्षा से बचाने के लिए साध्वियाँ इधर-उधर आश्रयस्थान की ओर चली गई। राजमती भी एक अन्धकारपूर्ण गुफा में प्रविष्ट हो गई। उसने अपने भीगे हुए वस्त्र उतारे और सूखने के लिए फैला दिये । उस गुफा में पहले से ही मुनि रथनेमि उपस्थित थे । अन्धकार के कारण सती राजमती को दिखाई नहीं दिये । जब रथनेमि की दृष्टि राजमती के नग्न शरीर पर पड़ी, तो वह विचलित हो गए। उनकी धर्म-भावना एवं संयम-रुचि में परिवर्तन हो गया। दृष्टिपात मात्र से उनका सुसुप्त मनोविकार जाग्रत हुआ। प्रकाशपूण वातावरण से आने के कारण, प्रवेश करते समय राजमती को रथनेमि दिखाई नहीं दिया था। किन्तु भीगे वस्त्र उतार कर सूखने के लिए फैलाने के बाद राजमती ने पुनः गुफा का अवलोकन किया ! उसे एक मनुष्याकृति दिखाई दी। वह भयभीत हो गई और सिमट कर अपनी बाहों से शरीर ढक कर बैठ गई । राजमती को भय से काँपती हुई देख कर रथनेमि वोला;--
“भद्रे ! भयभीत मत हो । मैं तेरा प्रेमी रथनेमि हूँ। हे सुन्दरी ! हे मृगनयनी ! में अब भी तुम्हें चाहता हूँ। मेरी प्रार्थना स्वीकार करो और मेरे पास आओ । देखो, भोग के योग्य ऐसा मनष्य-भव और सन्दर-तन प्राप्त होना अत्यन्त दर्लभ है। अपन भोग भोगें। भुक्त-भोगी होने के बाद फिर अपन संयम की साधना करेंगे। तुम निःशंक हो कर मुझें स्वीकार करो । तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।"
रथनेमि को पथभ्रष्ट और भग्न-चित्त देख कर राजमती संभली। उसने अपने आपको स्थिर एवं संवरित किया और अपनी उच्च जाति-कुल और शील की रक्षा करती हुई निर्भयतापूर्वक रथनेमि से बोली;--
__“रथनेमि ! तुम भ्रम में हो। सुनो ! यदि तुम रूप में वैश्रमण और लीलाविलास में नलकूबर के समान भी हो और साक्षात् इन्द्र भी हो, तो भी मैं तनिक भी नहीं चाहती । मैने भोग-कामना को वमन किये हुए पदार्थ के समान सर्वथा त्याग दिया है और आत्म-साधना में संलग्न हुई हूँ। तुम भी साधु हो । तुमने भी निग्रंथ-धर्म स्वीकार
। आओ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org