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तीर्थंकर चरित्र
समुद्रविजयजी आदि दस दशार्ह, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलदेव और प्रद्युम्न आदि कुमारों और अन्यजनों ने श्रावक-धर्म अंगीकार किया। महारानी शिवादेवी, रोहिणी, देवकी और रुक्मिणी आदि देवियों और अन्य महिलाओं ने श्राविका धर्म स्वीकार किया । इस प्रकार भगवान् ने चतुविध तीर्थ की स्थापना की और तीर्थङ्कर नामकर्म सार्थक किया ।
राजमती की दीक्षा
कुकुकुकुकु
भ० नेमिनाथजी की प्रव्रज्या के बाद तो राजमती के लिए भी यही मार्ग शेष रह गया था । जब तक नेमिनाथजी प्रव्रजित नहीं हुए, तब तक तो स्थिति अनुकूल बनने की सम्भावना उसे लगती रही, किन्तु प्रव्रजित के बाद तो वह सर्वथा निराश हो गई । उसके हृदय को पुनः आघात लगा । स्वस्थ होने पर उसने सोचा-
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'धन्य हो भगवन् ! आपको । आपने मुझे ही नहीं त्यागा, भोग- जीवन ही त्याग दिया । आप महान् हैं, किन्तु मेरी आत्मा मोह-मुग्ध रही । धिक्कार है मुझे कि में उन लोकोत्तम महापुरुष की अनुरागिनी हो कर भी अब तक मोह में ही रची हुई हूँ । नहीं, मोह मेरे लिए भी हेय है । अब में भी उसी मार्ग का अनुसरण करूंगी, जिसे स्वामी ने अपनाया है । मेरे लिए भी अब प्रव्रज्या ही श्रेयस्कर है । अब मुझे भी इस संसार से के ई सम्बन्ध नहीं रख कर, आत्म-साधना करनी चाहिए ।"
राजमतीने माता-पिता से प्रव्रज्या ग्रहण करने की आज्ञा मांगी। वे भी समझ चुके थे कि अब राजमती संसार त्याग के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं अपनाएगी । उन्होंने आज्ञा प्रदान कर दी । शीलवती, सदाचारिणी और बहुश्रुता राजमती ने प्रव्रजित होने के लिए अपने सुन्दर एवं सुशोभित केशों का लुंचन किया और निग्रंथ - प्रव्रज्या स्वीकार की । उसके साथ बहुत-सी राजकुमारियाँ, सखी-सहेलियाँ और अन्य अनेक महिलाएँ भी प्रव्रजित हुई * 1
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राजमती की दीक्षा पर महाराजाधिराज श्रीकृष्ण वासुदेव ने मंगलकामना व्यक्त करते हुए कहा--" हे राजमती ! तुम इस भयानक एवं दुस्तर संसार को शीघ्र ही पार * त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में राजमती की दीक्षा, भ. नेमिनाथ के केवलज्ञान के बहुत काल बाद- - श्री गजसुकुमाल मुनि के निर्वाण के बाद बताई है। मुझे लगता है कि भगवान् की दीक्षा के बाद वह इतने लम्बे काल तक गृहस्थ जीवन में नहीं रही होगी । उत्तराध्ययन अ. २२ वाँ देखते यही विचार होता है कि भगवान् को दीक्षा के कुछ दिन बाद ही राजमती भी दीक्षित हो गई होगी।
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