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दीक्षा, केवलज्ञान और तीर्थंकर-पद कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक
"यदि तुम इतनी समझ रखते हो, तो यह क्यों नहीं समझते कि मैं भी तुम्हारे ज्येष्ठ-बन्धु द्वारा परित्यक्ता हूँ। मुझ वमन की हुई का उपभोग करने की कामना ही क्यों कर रहे हो ? अरे उस लोकोत्तम महापुरुष के भाई हो कर भी तुम ऐसी अधम मनोवृत्ति रखते हो ? नहीं, नहीं, तुम्हें ऐसी अधमतापूर्ण पशुता नहीं करनी चाहिए और ऐसे दुष्टतापूर्ण विचारों को हृदय में से निकाल कर शुद्ध बनाना चाहिए।
सती की फटकार खा कर रथनेमि निराश हुआ और उदास हो कर घर लौट आया। राजमती ज्ञान के अवलम्बन से अपना समय व्यतीत करने लगी।
दीक्षा, केवलज्ञान और तीर्थंकर-पद
श्री अरिष्टनेमि कुमार, स्वर्ण दान दे रहे थे और अभाव-पीड़ित जनता लाभान्वित हो रही थी। श्री नेमिनाथजी ने राजमती की व्यथा एवं शोक-संतप्तता की बात सुनी और अपने अवधिज्ञान से विशेष रूप से जानी, किन्तु उदयभाव का परिणाम जान कर निलिप्त रहे। वर्षीदान का काल पूर्ण होने पर और ३०० वर्ष गृहवास में रह कर श्रावण-शुक्ला छठ के दिन चित्रा नक्षत्र में, देवेन्द्र और नरेन्द्र द्वारा भगवान् अरिष्टनेमिजी का निष्क्रमणोत्सव हुआ । उत्तरकुरु नाम की रत्नजड़ित शिविका पर भगवान् अरिष्टनेमिजी आरूढ़ हुए। देवों और नरेन्द्रों ने शिविका उठाई। शकेन्द्र और ईशानेन्द्र, भगवान् के दोनों ओर चामर डुलाते चले । सनत्कुमारेन्द्र प्रभु पर छत्र धर कर रहा, माहेन्द्र खड्ग ले कर आगे हुआ, ब्रह्मेन्द्र ने दर्पण लिया, लांतकेन्द्र पूर्ण कलशधारी रहा, महाशुकेन्द्र ने स्वस्तिक, सहस्रारेन्द्र ने धनुष, प्राणतेन्द्र ने श्रीवत्स और अच्युतेन्द्र ने नन्दावर्त लिया। चमरेन्द्र आदि ने अन्य शस्त्रास्त्र ग्रहण किये । श्री समुद्रविजयजी आदि दशाह-पितृवर्ग, शिवादेवी आदि मातृवर्ग और कृष्ण-बलदेवादि भातृवर्ग से घिरे हुए श्री अरिष्टनेमिजी शिविकारूढ़ हो कर चले। 'जय हो, विजय हो, काम-विजेता मुक्ति के महापथिक भगवान् अरिष्टनेमि की जय हो । भगवन् ! आप भव्य जीवों के उद्धारक बने । स्वयं तिरें और भव्यजीवों को तारें। आपकी और आपके परमोत्तम निर्ग्रन्थ-धर्म की जय-विजय हो।"
इस प्रकार जयघोषों और वादिन्त्रों के निनाद से युक्त वह निष्क्रमण-यात्रा आगे बढ़ी। यह वही राजमार्ग था-जिस पर एक वर्ष पूर्व इन्हीं अरिष्टनेमिजी की बारात चली थो । आज उसी राज-पथ पर इन्हीं की निष्क्रमण-यात्रा चल रही है । बारात में पिता आदि सभी में हर्षोल्लास का ज्वार उमड़ रहा था, परन्तु आज की इस यात्रा में माता-पितादि
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